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________________ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण परिभ्रमण करता है । कभी वह सुख सागर पर तैरता है, कभी दारुण दुःख भोगता है । कूटस्थनित्य मानने पर यह परिवर्तन नहीं हो सकता । यदि सुख-दुःख को प्रकृति का धर्म माना जाय तो भी युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि मृत शरीर में सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता । परिणामी नित्य मानने का तात्पर्य यह है है कि आत्मा कर्म के अनुसार नाना गतियों में परिभ्रमण करता है, नाना प्रकार के चोले धारण करता है, किन्तु आत्मतत्त्व के रूप में सदा स्थिर रहता है। जिस प्रकार सुवर्ण नाना आभूषणों का आकार धारण करता हुआ भी स्थायी रहता है । जैन दर्शन वेदान्त दर्शन की तरह आत्मा को एक और सर्वव्यापी भी नहीं मानता, क्योंकि - सर्वव्यापी मानने पर सभी को एक सदृश सुख-दुःख का अनुभव होना चाहिए । सर्वव्यापी मानने से परलोक भी घटित नहीं हो सकता और न बंधन व मोक्ष ही हो सकता है । वैशेषिक दर्शन ने ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं माना है, किन्तु जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण मानता है | ज्ञान से ही जड़ और चैतन्य की भेद रेखा खींची जाती है । यदि आत्मा में से ज्ञान गुण निकल जाय तो फिर आत्मा, आत्मा नहीं है । २२ बौद्ध दर्शन ने आत्मा को क्षणिक माना है, किन्तु जैन दर्शन निरन्वय क्षणिक नहीं मानता । निरन्वय क्षणिक मानने से कर्म और कर्मफल का एकाधिकरण रूप सम्बन्ध भी सम्यक् रूप से घट नहीं सकता । एक व्यक्ति दुराचार का सेवन करे और दूसरे को दण्ड मिले यह कहाँ का न्याय है ? दुराचार करने वाले का कृत कर्म निष्फल गया और उधर दुराचार न करने वाले दूसरे आत्मा को बिना कार्य किये ही फल भोगना पड़ा, यह उचित नहीं । चार्वाक दर्शन चेतना को पाँच भूतों से उत्पन्न हुआ मानता है, पर उसका भी मन्तव्य तर्कसंगत नहीं है । भौतिक पदार्थों से आत्मा भिन्न है । पृथ्वी, पानी, तेज वायु और आकाश इन पाँच जड़ भूतों के संमिश्रण से चैतन्य आत्मा कैसे उत्पन्न हो सकता है ? जड़ के संयोग से जड़ की ही उत्पत्ति होती है, चैतन्य की नहीं । कारण के अनुरूप ही कार्य होता है । उत्पन्न भी तो वही वस्तु होती है जो पहले न हो, किन्तु आत्मा तो पूर्व में था वर्तमान में है और भविष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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