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________________ २० भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण चैतन्य नामक पदार्थ की स्वतंत्र सत्ता को वह स्वीकार नहीं करता। जैन दर्शन उसके सम्बन्ध में भी कहता है कि केवल प्रकृति ही है, आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है तो जड़ प्रकृति में यह सुख और दुःख की अनुभूति किसे होती है ? ज्ञान-दर्शनमयी चेतना का उद्भव स्थान क्या है ? यह विवेक और बोध क्या पृथ्वी आदि जड़ भूतों के धर्म हैं ? आत्मा का निषेध करने वाला कौन है ? जड़ प्रकृति में यह धर्म संभव नहीं हैं । जड़ वस्तुओं में, जैसे ईट और ढेलों में, कोई अनुभूति नहीं होती, वे एक सदृश ही रहते हैं, उन्हें कितना भी पीटा जाय पर कीड़ों और मकोड़ों की तरह आत्म-रक्षा का प्रयत्न उन में नहीं होता। चार्वाक दर्शन के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। __ जैन दर्शन विश्व को चतन्य और जड़ रूप से उभयात्मक मानता है। वह अनादि और अनन्त है, अतीत काल में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा। पर्याय रूप से परिवर्तन होने पर भी द्रव्य रूप से सदा अवस्थित रहता है। भारतीय दर्शन में आत्म तत्त्व का विवेचन : आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करनेवाले दर्शनों का भी आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में परस्पर एक मत नहीं है। सभी की विचार-धाराए पृथक्-पृथक् दिशा में प्रवाहित हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार आत्मा कूटस्थ नित्य है। उसका अभिमत है कि आत्मा तीनों कालों में कूटस्थ- एक रूप रहता है, किञ्चित् मात्र भी उसमें परिवर्तन नहीं होता। जो सुख, दुःख आदि प्रत्यक्ष रूप में अनुभूत होते हैं, वे आत्मा के नहीं, प्रकृतिजन्य बुद्धि के धर्म हैं । स्मरण रहे कि सांख्यदर्शन के अनुसार बुद्धि आत्मा का नहीं, प्रकृति का कार्य है।' सांख्य दृष्टि से आत्मा अकर्ता है। किसी भी प्रकार के कर्म का कर्ता आत्मा नहीं, प्रकृति है । आत्मा तो केवल प्रकृति के दृश्य को देखने वाला द्रष्टा है, वह मूढ़ है, जो अपने आपको कर्ता मानता है।२ १. प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । -सांख्यतत्त्वकारिका, २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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