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अरिष्टनेमि
विराट विश्व :
भारत के मूर्धन्य मनीषियों ने इस विरा विश्व के सम्बन्ध में विविध कल्पनाएं की हैं। चैतन्याद्वैतवादी वेदान्त दर्शन का अभिमत है कि यह विश्व चैतन्यमय ही है, किन्तु जैन दर्शन इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता। उसका स्पष्ट आघोष है कि यदि विश्व (प्रपंच) की उत्पत्ति के पूर्व केवल एक चैतन्य ब्रह्म ही था, अन्य वस्तु नहीं थी, तो यह प्रपंच रूप विश्व कहाँ से उत्पन्न हो गया ? शुद्ध ब्रह्म में विकार कैसे आ गया ? 'पर' के संयोग विना विकार आ ही नहीं सकता । यदि माया के कारण विकार आया है तो माया क्या है ? वह सत् रूप है या असत् रूप ? यदि वह सत् रूप है तो अतवाद किस प्रकार ठहर सकता है ? क्या ब्रह्म और माया यह द्वैत नहीं है ? यदि उसे नास्ति रूप या असत् माना जाय तो क्या वह आकाश कुसुमवत् नहीं है ? वह शुद्ध ब्रह्म को किस प्रकार विकृत कर सकती है ? जब वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है तो वह किस प्रकार कर्ता बन सकता है ? कर्ता वही बन सकता है जो भाव-रूप और क्रियाशील होगा। किन्तु इन प्रश्नों का सही समाधान वेदान्त दर्शन के पास नहीं हैं। ___चार्वाक दर्शन चैतन्याद्व तवादी दर्शन के विपरीत है। चार्वाक दर्शन नास्तिक दर्शन है। वह विश्व को जड़ रूप ही मानता है।
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