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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण ने कहा-भाई ! शोक न करो। जो होगया है उसे कोई टाल नहीं सकता। यादवों में एक तुम्ही अवशेष हो अतः चिरकाल तक जीओ। जब तक बलराम नहीं आते हैं तब तक तुम यहाँ से चले जाओ । बलराम तुम्हें देखेंगे तो जीवित नहीं छोड़ेगे। तुम यहाँ से शीघ्र ही पाण्डवों के पास जाना। उन्हें मेरा यह कौस्तुभ रत्न देना और द्वारिका की तथा मेरी स्थिति कहना। मैंने उन्हें पूर्व देश से निष्कासित किया था, अतः उन्हें कहना कि मुझे क्षमा प्रदान करें। कृष्ण के आदेश से जराकूमार श्रीकृष्ण के पैर में से बाण निकालकर तथा कौस्तुभ रत्न लेकर चल दिया।२७
जराकुमार के जाने के पश्चात् श्रीकृष्ण के पैर में अपार वेदना हुई। उन्होंने पूर्वाभिमुख होकर अंजलि जोड़कर कहा--"मैं पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ, भगवान् अरिष्टनेमि को नमस्कार करता हूँ । प्रद्य म्न आदिकुमार और रुक्मिणी आदि धन्य हैं जिन्होंने संयम मार्ग स्वीकार किया है।'
इस प्रकार श्रीकृष्ण कुछ समय तक विचार करते रहे फिर उनके मन में जोश आया और उन्होंने एक हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण किया ।२८ __श्रीकृष्ण वासुदेव सोलह वर्ष तक कुमार अवस्था में रहे । छप्पन वर्ष माण्डलिक अवस्था में रहे और नौ सौ अट्ठाईस वर्ष अर्धचक्री अवस्था में रहे, इस प्रकार उनका कुल आयुष्य एक हजार वर्ष का
हुआ।२९
२७. पदानुसारी रामस्त्वां यथा प्राप्नोति न द्रुतम् ।
मद्वाचा क्षमयेः सर्वात् पांडवानपरानपि ।। मयैश्वर्यजुषा पूर्व क्लेशितान् प्रेषणादिभिः । एवं पुनः पुनः कृष्णेनोक्तः सोऽपि तथैव हि । कृष्ण पादाच्छरं कृष्ट्वा जगामोपात्तकौस्तुभः ।।
-त्रिषष्टि० ८।११।१५१-१५३ २८. त्रिषष्टि० ८।११।१५४-१६४ २६. कौमारान्तः षोडशाब्दानि विष्णोः षट्पञ्चाशन्मंडलित्वे जये तु । वर्षाण्यष्टाथो नवागुः शतानि विशान्युच्चैरर्धचक्रित्वकाले ।
-त्रिषष्टि० ८।११-१६५
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