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जीवन की सांध्य-वेला
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द्वारिका दहन :
द्वैपायन इसी प्रतीक्षा में था। वह उसी समय यमराज की तरह विविध उत्पात करने लगा। उसने अंगारों की वृष्टि की। श्रीकृष्ण के सभी अस्त्र-शस्त्र जलकर नष्ट होगए। द्वैपायन देव विद्र प रूप बनाकर द्वारिका में घूमने लगा । उसने संवर्त वायु का प्रयोग किया, जिससे चारों ओर के जंगलों में से काष्ठ और घास आकर द्वारिका में एकत्रित होगया। प्रलयकारी अग्नि प्रज्वलित हुई। जो लोग द्वारिका को छोड़कर भागने लगे, उन सभी को द्वैपायन पकड़-पकड़ कर लाता और उस अग्नि में होम देता। बालक से लेकर वृद्ध तक कोई एक कदम भी इधर-उधर नहीं जा सकता था । १3
उस समय श्रीकृष्ण और बलदेव ने जलती हुई द्वारिका से बाहर निकालने के लिए वसुदेव, देवकी और रोहिणी को रथ में बिठाया किन्तु जिस प्रकार कोई मंत्रवादी सर्प को स्तम्भित कर देता है वैसे ही द्वैपायन देव ने अश्वों को स्तम्भित कर दिया। वे एक कदम भी आगे न बढ़ सके। श्रीकृष्ण ने घोड़ों को वहीं पर छोड़ा और स्वयं रथ को खींचने लगे। रथ टूट गया।१४ 'हे राम ! हे कृष्ण !' हमें बचाओ इस प्रकार माता-पिता की करुण पुकार सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम रथ को किसी प्रकार द्वारिका के दरवाजे तक ले आये। उसी समय नगर के द्वार बन्द हो गये। बलभद्र ने लात मार कर नगर के दरवाजे को तोड़ दिया। रथ
(ख) भव-भावना, पृ० २५२, २५३ १३. (क) त्रिषष्टि० ८।११।६२-७२
(ख) हरिवंश पुराण ६१।७४-७८ १४. (क) त्रिषष्टि० ८।११।७४-७६ नोट-हरिवंशपुराण के अनुसार श्रीकृष्ण द्वारिका का कोट तोड़
कर समुद्र के प्रवाह से उस अग्नि को बुझाने लगे, बलदेव समुद्र के जल को हल से खींचने लगे तो भी अग्नि शान्त
नहीं हुई। देखो-हरिवंशपुराण ६१।८०-८१, पृ० ७६० ... (ख) हरिवंशपुराण ६१।८२-८४
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