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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
कृष्ण की आज्ञा से दारुक सारथी राजा पद्मनाभ के पास पहचा और हाथ जोड़कर उसे जय विजय के शब्दों से मांगलिक देता हआ बोला- स्वामी यह मेरी निजी विनय प्रतिपत्ति है। अन्य अब मेरे स्वामी के मुह से निकली हुई आज्ञप्ति है । इस प्रकार कहकर दारुक ने कृष्ण की आज्ञा के अनुसार उनका सन्देश राजा पद्मनाभ को सुनाया।
पद्मनाभ सुनते ही क्रोध से रक्त नेत्र वाला हो गया और भृकुटि चढ़ाकर दारुक से बोला--मैं कृष्ण वासूदेव को द्रौपदी नहीं दगा। जाकर कह दो कि मैं स्वयं युद्ध के लिए सज्जित होकर आ रहा हूँ।
उसके बाद उसने दारुक का बिना सत्कार किये उसे अपद्वार (पिछले द्वार) से बाहर निकाल दिया । दारुक ने घटित घटनाएं श्रीकृष्ण से निवेदन की। __राजा पद्मनाभ शस्त्रों से सुसज्जित हो, चतुरंगिणी सेना के साथ कृष्ण वासुदेव की ओर रवाना हुआ।
पद्मनाभ को निहार कर श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से कहा-तुम युद्ध करोगे या मैं स्वयं करू ?
पाण्डवों ने निवेदन किया-स्वामी ! हम युद्ध करेंगे, आप दूर रहकर हमारे युद्ध को देखें।
तदनन्तर पाँचों पाण्डव कवच पहनकर शस्त्रों से सुसज्जित होकर, रथ पर आरूढ़ हुए और जहां पर राजा पद्मनाभ था वहाँ पर आये। आकर--'आज हम हैं या पद्मनाभ राजा हैं १3 ऐसा कहकर पाण्डव पद्मनाभ के साथ युद्ध करने लगे।
देवि कण्हस्स वासुदेवस्स, अहवा णं जुद्धसज्जे णिग्गच्छाहि, एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहि पंडवेहि अप्पछ8 दोवई देवीए कूवं हव्वमागए ।
-ज्ञाताधर्म कथा १६ १३. तए णं पंच पंडवे सन्नद्धजाव पहरणा रहे दुरूहति दुरूहित्ता जेणेव
पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासी 'अम्हे पउमणाभे वा राया' त्ति कट्ट पउमनाभेणं सद्धि संपलग्गा यावि होत्था ।
-ज्ञाताधर्म कथा अ० १६, पृ० ५११
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