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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया। वे सभी राजा अरिष्टनेमि के चरणारविन्दों में आकर प्रार्थना करने लगे-भगवन् ! आपने हमें उसी समय जीत लिया। अकेले वासूदेव ही प्रतिवासुदेव को हनन करने में समर्थ हैं फिर उनकी सहायता के लिए आप जैसे लोकोत्तर पुरुष हों तो कहना ही क्या है ? भवितव्यता से जो कुछ भी हुआ है उसके लिए हम हृदय से क्षमाप्रार्थी हैं, हम आपकी शरण में आये हैं ।१९
सभी राजाओं को साथ लेकर अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के पास आये । श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि का हृदय से स्वागत किया, और दोनों परस्पर प्रेमपूर्वक मिले । अरिष्टनेमि के कहने से तथा समुद्रविजयजी की आज्ञा से श्रीकृष्ण ने उन राजाओं का तथा जरासंध के बचे हए पुत्रों का सत्कार किया ।२० जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध देश के चतुर्थ भाग का राजा बनाया ।२१ समुद्रविजयजी के पुत्र महानेमि को शौर्यपूर का राज्य दिया। हिरण्यनाभ के पुत्र रुक्मनाभ को कौशल देश का राज्य दिया ।२२ उग्रसेन के 'धर' नामक पुत्र को मथुरा का राज्य दिया ।२3 अरिष्टनेमि की आज्ञा से मातली नामक सारथी भी रथ को लेकर शक्रन्द्र के पास चला गया । अन्य राजागण भी अपनी छावनी में चले गये ।२४
दूसरे दिन समुद्रविजय और कृष्ण वासुदेव, प्रद्युम्न, शाम्बकुमार सहित वसुदेव की प्रतीक्षा कर रहे थे । वे विद्याधरों पर
१६. त्रिषष्टि ८।८।१-४ २०. त्रिषष्टि ८ । ८ । ५-७ २१. (क) त्रिषष्टि ८ । ८ । ८
(ख) हरिवंश पुराण-५३ । ४४ । ६०७ २२. त्रिषष्टि ८ । ८ । ६ २३. त्रिषष्टि ८ । ८ । १० २४. (क) त्रिषष्टि ८ । ८ । ११ (ख) गतो मातलिरापृच्छ्य सेवेयं स्वामिनोऽन्तिकम् । यादवाः शिविरस्थानं निजं जग्मुः सपार्थिवाः ।।
-हरिवंशपुराण ५२ । ११ । ६०३
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