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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण उसी का मांस काटा जा रहा हो । राजा के करुण क्रन्दन को सुनकर रानी अत्यन्त प्रसन्न हुई । वह मांस खाकर फूली न समाई । तब वह दोहदपूत्ति हो जाने पर सन्तुष्ट हुई तत्पश्चात् उसे घोर पश्चात्ताप हुआ कि यह मैंने क्या किया? जो पुत्र गर्भ में भी पिता के प्रति इतनी दुर्भावना रखता हो, वह बाद में किस प्रकार की भावना रखेगा, इसकी कल्पना कर रानी धारिणी भावी अमंगल की कल्पना से सिहर उठी । समय व्यतीत हुआ। जन्म लेने पर बालक को कांस्य की पेटी में रखकर, साथ ही जन्मपत्रिका और माता-पिता के नाम की दो मुद्रिकाए रख कर यमुना नदी में बहा दिया । सोचा - न रहेगा बांस न बजेगी बांसूरी। जब यहां पर बालक ही न रहेगा तब पिता को किसी प्रकार का खतरा भी न होगा। वह पेटी यमुना नदी में बहती हुई चली जा रही थी। सुभद्र नामक श्रेष्ठी ने वह पेटी निकाली । पेटी में तेजस्वी बालक को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने वह बालक पालन-पोषण के लिए अपनी पत्नी को दिया। बालक का नाम कांस्य की पेटी में से निकलने के कारण 'कंस' रखा। बड़ा होने पर कंस वसुदेव के वहां अनुचार रहा, वसुदेव से कंस ने युद्ध आदि की समस्त कलाए सीखीं।" कंस का जीवयशा के साथ पाणिग्रहण :
उस समय राजगृह का अधिपति जरासंध नामक प्रतिवासुदेव था। प्रायः सभी राजा उसके अधीन थे। एक दिन प्रतिवासुदेव ने
२. सोऽथोग्रसेनभाया धारिण्या उदरेऽभवत् । तस्याश्च दोहदो जज्ञ पत्यु: पललभक्षणे ॥
___-त्रिषष्टि ० ८।२।६२ ३. त्रिषष्टि० ८।२।६९-७० ४. कंस इत्यभिधां तस्य चक्रतुस्तौ तु दंपती। वर्धयामासतुस्तं स मधुक्षीरघृतादिभिः ।।
–त्रिषष्टि० ८।२।७२ ५. ततस्ताभ्यां दशवर्षः सेवकत्वेन सोऽपितः । वसुदेवकुमारस्य सोऽभूत्तस्याप्यतिप्रियः ॥
-त्रिषष्टि० ८।२।७५
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