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लेखक की कलम से
भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण ये दोनों ही भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान सितारे हैं। दोनों संस्कृति के सजग प्रहरी ही नहीं, अपितु संस्कृति और सभ्यता के निर्माता हैं । जैनसंस्कृति में जिस प्रकार भगवान् अरिष्टनेमि की गौरव गाथाए मुक्त कंठ से गाई गई हैं उसी प्रकार स्नेह की स्याही में डुबोकर श्रीकृष्ण के अनलोद्धत व्यक्तित्व को भी उट्टङ्कित किया गया है । मैं साधिकार कह सकता हूँ कि श्रीकृष्ण के जीवन के उज्ज्वल प्रसंग जो जैन साहित्य में उपलब्ध हैं वे प्रसंग न तो वैदिक साहित्य में प्राप्त हैं और न बौद्ध साहित्य में ही । जैन साहित्य में कृष्ण को भगवान् नहीं, किन्तु महामानव माना है, वासुदेव और श्लाघनीय पुरुष कहा है । एक गरीब वृद्ध व्यक्ति को ईंट उठाते हुए देखकर उनका हृदय दया से द्रवित हो जाता है, तीन खण्ड के अधिपति होने पर भी वे स्वयं ईंट उठाते हैं यह प्रसंग उनकी मानवता की भावना को उजागर करता है । वे माता-पिता व गुरुजनों को भक्ति भावना से विभोर होकर नमस्कार करते हैं, उनकी आज्ञा का पालन करते हैं यह उनकी विनम्र भावना का परिचायक है । वासुदेव होने के कारण वे स्वयं संयम साधना को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, पर अपने पुत्र, पत्नी तथा अन्य परिजनों को त्याग वैराग्य व संयम की प्रेरणा देते हैं, यह उनके विचारों की निर्मलता का द्योतक है । मृत कुत्त े के शरीर में कीड़े कुलबुला रहे हैं, भयंकर दुर्गन्ध से मस्तिष्क फटने जा रहा है, उस समय भी वे उसके चमचमाते हुए दाँतों को ही देखते हैं यह उनके गुणानुरागी स्वभाव को प्रदर्शित करता है, इस प्रकार अनेक प्रसंग हैं जो उनकी मानवता की महत्ता को प्रदर्शित करते हैं । वे सारे प्रसंग इतने सुन्दर और रसप्रद हैं, कि उनके अभाव में श्रीकृष्ण के तेजस्वी व्यक्तित्व को समझा नहीं जा सकता । वैदिक साहित्य में श्रीकृष्ण के जीवन को विस्तार से लिखा गया है । प्राचीन और मध्ययुग के साहित्य में श्रीकृष्ण की लीलाओं का निरुपण
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