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भारतीय साहित्य में श्रीकृष्ण
१६३ प्रभावशाली रहा है । जैन दृष्टि से जो तिरेसठ श्लाघनीय पुरुष हुए हैं, उन सभी का शारीरिक संस्थान अत्युत्तम था। उनके शरीर की प्रभा निर्मल स्वर्ण रेखा के समान होती है।
श्रीकृष्ण का शरीर मान, उन्मान, और प्रमाण में पूरा, सुजात और सर्वाङ्ग सुन्दर था। वे लक्षणों, व्यंजनों और गुणों से युक्त थे। उनका शरीर दस धनुष लम्बा था। देखने में बड़े ही कान्त, सौम्य सुभग-स्वरूप और अत्यन्त प्रियदर्शी थे। वे प्रगल्भ, धीर और विनयी थे। सुखशील होने पर भी उनके पास आलस्य फटकता नहीं था।
उनकी वाणी गंभीर, मधुर और प्रतिपूर्ण थी। उनका निनाद क्रौंच पक्षी के घोष, शरद् ऋतु की मेघ-ध्वनि और दुभि की तरह मधुर व गंभीर था। वे सत्यवादी थे।
उनकी चाल मदमत्त श्रेष्ठ गजेन्द्र की तरह ललित थी। वे पीले रंग के कौशेय-वस्त्र पहना करते थे। उनके मुकुट में उत्तम धवल, शुक्ल, निर्मल कौस्तुभ मणि लगा रहता था। उनके कान में कुडल, वक्षस्थल पर एकावली हार लटकता रहता था। उनके श्रीवत्स का लांछन था। वे सुगन्धित पूष्पों की माला धारण किया करते थे।
वे अपने हाथ में धनुष रखा करते थे, वे दुर्धर धनुर्धर थे। उनके धनूष की टंकार बड़ी ही उद्घोषकर होती थी। वे शंख, चक्र, गदा, शक्ति और नन्दक धारण करते। ऊँची गरुड़ ध्वजा के धारक थे।
वे शत्र ओं के मद को मर्दन करने वाले, युद्ध में कीति प्राप्त करने वाले, अजित और अजितरथ थे। एतदर्थ वे महारथी भी
कहलाते थे।११
श्री कृष्ण सभी प्रकार से गुण सम्पन्न और श्रेष्ठ चरित्रवान थे। उनके जीवन के विविध प्रसंगों से, जो अगले अध्यायों में दिये गये हैं, सहज ही ज्ञात होता है कि वे प्रकृति से दयालु, शरणागत-वत्सल,
६. प्रज्ञापना सूत्र २३ १०. हारिभद्रीयावश्यक, प्रथम भाग गा० ३६२-६३ । ११. प्रश्नव्याकरण, अ० ४ पृ० १२१७, सुत्तागमे भाग १ ।
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