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तीर्थकर जीवन
थे। उसके पश्चात् उन्होंने अन्य जनपदों में विहार किया। द्वारवती दहन से पूर्व वे पूनः रैवतपर्वत पर आये थे। १३५ जब द्वारवती का दहन हुआ उस समय वे पल्हव देश में थे। इस मध्यावधि में बारह वर्ष का काल बीता है । १३६ संभव है इस बीच वे ईरान भी गये हों क्योंकि द्वारवती के दहन के पश्चात् श्रीकृष्ण और बलभद्र पाण्डव मथुरा (वर्तमान मदुरा) में जा रहे थे। वे द्वारवती से पूर्व दिशा में चले, सौराष्ट्र को पारकर हस्तिकल्पपुर पहुचे। वहां से दक्षिण की ओर प्रस्थान किया और कौसूम्बारण्य में गये । १३७ इस यात्रा में वे भगवान् अरिष्टनेमि के पास गये हों ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। यह आश्चर्य की बात है कि द्वारवती दहन के बाद वे भगवान के पास नहीं गये। इसलिए यह सहज ही कल्पना होती है कि भगवान् उस समय सौराष्ट्र में नहीं होंगे। यह भी हो सकता है कि वे उनके जाने के मार्ग से कहीं दूर हों, जब तक इस सम्बन्ध में विश्वस्त प्रमाण उपलब्ध न हो तब तक अन्तिम निर्णय नहीं लिया जा सकता ।१3८
आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार उनका विहारक्षेत्र संक्षेप में इस प्रकार रहा है.-भगवान् अरिष्टनेमि मध्यदेश आदि में विहार कर उत्तर दिशा में राजपुर आदि नगरों में पधारे। वहां से 'ह्रीमान' गिरि पर पधारे। वहां से अनेक म्लेच्छ देशों में पधारे, वहां के अनेक राजाओं को और मंत्रियों को प्रतिबोध दिया। वहाँ से पुनः ह्रीमान गिरि पर आये। वहाँ से वे किरात देश में गये । वहाँ से ह्रीमान पर्वत से उतरकर दक्षिणापथ देश में आये। वहाँ से निर्वाण समय सन्निकट जानकर रैवतगिरि पर पधारे । १३९
१३५. एत्थंतरे य भगवं पूणरवि अरिट्टनेमि सामी विहरतो आगओ,
रेवयम्मि समोसढो। १३६. (क) चउप्पन्नमहापुरिस चरियं
(ख) भव-भावना १३७. पत्थिया ते पाएहिं चेव पुवदिसिमंगीकाऊण......"सुरट्ठादेसं च
समुत्तरिऊण....... पत्तो हत्थिकप्पपुर-वरस्सबाहि....."दक्खिणाभिमुहं गंतु पयत्ता । कोसुबारण नाम वणं ।
--उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति पत्र ४०
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