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तीर्थंकर जीवन
महिला भान भूल गई । बलदेव मुनि ने देखा - कुए पर खड़ी महिला उनकी ओर टकटकी लगाकर देख रही है, घड़े के गले में डालने की रस्सी बालक के गले में डाल रही है । अनर्थ ! महान् अनर्थ ! मुनि ने महिला को सावधान किया। बालक की रक्षा कर मुनि उलटे पैरों जंगल में लौट गये । उन्होंने सोचा – ऐसे रूप को धिक्कार है । आज से मैं किसी नगर या गांव में प्रवेश नहीं करूंगा । जंगल में जो व्यक्ति काष्ठ आदि लेने आवेंगे, उनसे जो भी निर्दोष भिक्षा मिल जायेगी वही ग्रहण करूंगा ।
भयानक निर्जन जंगल में ऐसे दिव्य भव्य तेजस्वी तपस्वी सन्त को देखकर सभी आगन्तुक चकित थे ! यह कौन है ? यहां क्यों तप कर रहा है ? क्या किसी मंत्र-तंत्र की साधना कर रहा है ? लोगों ने राजा को सूचना दी। राजा ससैन्य वहां पहुँचा, तपस्वी को मारने के लिए । सिद्धार्थ देव ने गंभीर गर्जना करते हुए सिंह का रूप बनाया;
राजा भाग गया ।
पास आता, उनको आपको भिक्षा देने
"अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः " की उक्ति के अनुसार जंगल के प्राणी निर्भय होकर बलदेव मुनि के आस-पास घूमने लगे । एक मृग तो जातिस्मरण ज्ञान से अपने पूर्व भवों को स्मरण कर उनका परम भक्त बन गया । वह जंगल में इधर-उधर घूमता और देखता कि कौन काष्ठ लेने के लिए जंगल में आया है । उन्हें देखकर वह पुनः बलदेव मुनि के नमस्कार कर अपने हृदय के भाव बताता कि वाला इधर है । एक दिन मृग के संकेत से मुनि भिक्षा के लिए पहुँचे । मासखमण का पारणा था । मुनि को देखकर रथवाला अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह मुनि के चरणों में गिर पड़ा। उदार भावना से उसने मुनि को आहार दान दिया । मुनि भिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । मृग सोच रहा है - यह सारथी कितना भाग्यशाली है जो मुनि को दान दे रहा है । उसी समय तूफान आया और वह वृक्ष गिर पड़ा । बलदेव मुनि, सारथी तथा मृग तीनों ने शुभ ध्यान में आयु पूर्ण किया । ब्रह्मदेव लोक के पद्मोत्तर नामक विमान में वे तीनों उत्पन्न हुए । ४
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६४. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित पर्व ८, सर्ग १२ (ख) पाण्डवचरित्र सर्ग १८, ५६५-५७०, मल्लधारी देवप्रभ
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