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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण रथनेमि का आकर्षण :
अरिष्टनेमि का सहोदर रथनेमि राजीमती के पास आने-जाने लगा। वह राजीमती के रूप पर मुग्ध था। राजीमती को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए नित्य नवीन उपहार भेजता। सरल हृदया राजीमती उसकी वह कुटिल चाल न समझ सकी। वह अरिष्टनेमि का ही उपहार समझकर प्रेमपूर्वक ग्रहण करती रही।
एक दिन एकान्त में राजीमती को देखकर रथनेमि ने अपने हृदय की इच्छा अभिव्यक्त की। राजीमती ने जब वह बात सुनी तो सारा रहस्य समझ गई। दूसरे दिन जब रथनेमि आया तब उसे समझाने के लिए उसने सुगंधित पय-पान किया। और उसके पश्चात् वमन की दवा (मदनफल) ली। जब दवा के प्रभाव से वमन हुआ तो उसे एक स्वर्ण पात्र में ग्रहण कर लिया और रथनेमि से कहा"लीजिए, इसका पान करिए।" __रथनेमि ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा- "क्या मैं श्वान हूँ ? वमन का पान तो श्वान करता है, इन्सान नहीं।"
राजीमती ने कहा-बहुत अच्छा। तो मैं भी अरिष्टनेमि के द्वारा वमन की हई हैं, फिर मुझ पर मुग्ध होकर मेरी इच्छा क्यों कर रहे हो? तुम्हारा विवेक क्यों नष्ट हो गया है ? क्या यह भी वमनपान नहीं है ? धिक्कार है तुम्हें, जो वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करते हो, इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।
राजीमती की फटकार से रथनेमि लज्जित होकर नीचा शिर किये अपने घर को चला गया ।५
राजीमती दीक्षाभिमुख हो अनेक प्रकार के तप और उपधानों को करने लगी।१६
१५. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित पर्व, ८ सर्ग, ६ पृ० १६२-१६३
(ख) उत्तराध्ययन टीका १६. (क) उत्तराध्ययन टीका २२ (ख) कल्पसूत्र टीका
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