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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण नारी के साथ न्याय नहीं किया । तू उसकी चिन्ता छोड़ दे । हम तेरे लिए उससे भी अधिक सुन्दर, सुकुमार तेजस्वी राजकुमार की अन्वेषणा करें।" सखी फिर कहने लगी।
राजीमती ने फिर से डांटते हुए कहा-'चुप भी रहो, मुह से ऐसी बातें न निकालो। अरिष्टनेमि मेरे प्रियतम हैं, मेरे जीवनसाथी हैं। मैं हृदय से उनका वरण कर चुकी हैं।' ___ 'अरी राजुल ! इस प्रकार बचपन नहीं किया करते। तू पगली है। जब वे तेरे नहीं हुए तो तू उनकी कैसी हो गई ? पराये के लिए इस प्रकार आंसू नहीं बहाया करते । उठ, हाथ मुंह धो, कपड़ा बदल, माता जी तुम्हारी कब से राह देख रही हैं।" __'पागल मैं नहीं, तुम हो । मैं क्षत्रिय बाला हूँ ! वह एक ही बार जीवन साथी को चुनती है। मैंने अरिष्टनेमि को अपना बना लिया है, अब उनकी जो राह है वही राह मेरी भी होगी।"
प्रेममूर्ति राजीमती अरिष्टनेमि की अपलक प्रतीक्षा करती रही। सोचती रहती-भगवान् एक दिन मेरी अवश्य सुध लेंगे। परन्तु उसकी भावना पूर्ण न हो सकी। बारह महीने तक उसके अन्तर्मानस में विविध संकल्प-विकल्प उद्बुद्ध होते रहे, जिन्हें अनेक जैन कवियों ने बारहमासा के रूप में चित्रित किया है। उनमें राजीमती के माध्यम से वियोग शृगार का हृदयग्राही सुन्दर निरूपण हुआ है । वह अनूठा और अपूर्व है। यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि "जो न होते नेम राजीमती, तो क्या करते जैन के यति ।"
वैदिक साहित्य में जैसा स्थान राधा और श्रीकृष्ण का है वैसा ही स्थान जैन साहित्य में राजीमती और अरिष्टनेमि का है। हां, राजीमती के समक्ष किसी भी प्रकार की भौतिकवासना को स्थान नहीं है। वह देह की नहीं, देही की उपासना करना चाहती है। यही कारण है कि जब अरिष्टनेमि साधना के मार्ग पर बढ़ते हैं तब वह भी उसी मार्ग को ग्रहण करती है और कठोर साधना कर अरिष्टनेमि से पूर्व ही मुक्त होती है। यदि वासना युक्त प्रेम होता तो वह साधना को न अपना सकती।
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