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जन्म एवं विवाह प्रसग __ करुणामूर्ति अरिष्टनेमि ने सोचा- मेरे कारण से इन बहुत से जीवों का मारा जाना मेरे लिए कल्याणप्रद नहीं होगा। यह विचारकर उन्होंने अपने कूडल, कटिसूत्र, आदि सभी आभूषण उतार कर सारथी को दे दिये, और हाथी को मोड़ने के लिए कहासारथी ! वापस चलो ! मुझे इस प्रकार का हिंसाकारी विवाह नहीं करना है। श्रीकृष्ण आदि बहुतों के समझाने पर भी वे नहीं माने और बिना व्याहे ही लौट चले।
राजीमती के चेहरे पर जो गुलाबी खुशियां छायी हुई थीं, प्रभु के लौट जाने पर गायब हो गई। वह अपने भाग्य को कोसने लगी। उसे बहुत ही दुःख हुआ । अरिष्टनेमि उसके हृदय में बसे हुए थे। माता, पिता, और सखियों ने समझाया 'अरिष्टनेमि चले गए तो क्या हुआ ! बहुत से अच्छे वर प्राप्त हो जायेंगे। उसने दृढ़ता के साथ कहा-विवाह का बाह्य रीतिरस्म (वरण) भले ही न हुआ हो, किन्तु अन्तरंग हृदय से मैंने उन्हें वर लिया है, अब मैं आजन्म उन्हीं स्वामी की उपासना करूगी ८० दिगम्बर ग्रन्थों में :
उत्तरपुराण और हरिवंशपुराण में इससे भिन्न वर्णन है। उनके अनुसार श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि को विरक्त करने के लिए बाड़ों में हिरनों को एकत्रित करवाया था। श्रीकृष्ण ने सोचा
७६. अह सारही तओ भणइ एए भद्दा उ पाणिणो। तुझं विवाहकज्जंमि भोयावेउं बहु जणं । १७ ।
-उत्तराध्ययन २२। ७७. जइ मज्झ कारणा एए, हम्मिहिंति बह जिया ।
न मे एयं तु निस्सेसं, परलोगे भविस्सई । १६ । ७८. सो कुडलाणजुयलं सुत्तंग च महायसो । आभरणाणि य सव्वाणि सारहिस्स पणामए ॥ २० ।
-उत्तराध्ययन २२ ७६. त्रिषष्टि० ८ ८०. त्रिषष्टि ० ८।६, पृ० १६०-१६१ ८१. उत्तरपुराण ७१।१५२
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