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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
उनके कोप का कारण जाम्बवती के द्वारा किया गया अपमान ही है, यह जानकर श्रीकृष्ण को सन्तोष हुआ । उन्होंने प्रेमपूर्वक अरिष्टनेमि का सम्मान किया और वहां से विदा किया । ६४ राजुल की मंगनी :
अरिष्टनेमि राजकुमार थे । सुख, वैभव, और भोग विलास की सामग्री उनके चारों ओर बिखरी पड़ी थी । एक ओर माता पिता का ममतामय वात्सल्य उन पर स्नेह की सरस वृष्टि कर रहा था । दूसरी ओर तीन खण्ड के अधिपति श्रीकृष्ण का अपार प्र ेम भी उन्हें प्राप्त था । अन्तःपुर आदि किसी भी स्थल में वे विना रोक-टोक प्रवेश कर सकते थे, ६५ किन्तु उनका मन उन रमणीय राजमहलों में नहीं लग रहा था । उनके जीवन का लक्ष्य अन्य था । वे सांसारिक माया के नाग पाशों को तोड़कर मुक्त होना चाहते थे ।
महाराज समुद्रविजय और महारानी शिवा देवी अपने प्यारे पुत्र की चिन्तनशील मुद्रा देखकर सोचने लगते कि कहीं यह अन्य दिशा में न बह जाय । वे उन्हें परिणय बंधन में बांधना चाहते थे । श्रीकृष्ण की भी यही अन्तरेच्छा थी । उन्होंने अरिष्टनेमि को विवाह के लिए प्रेमपूर्वक आग्रह किया, किन्तु वे सहमत नहीं हुए । श्रीकृष्ण के मन में एक विचार यह भी था कि इनका विवाह होने पर इनका जो अतुल पराक्रम है वह मन्द हो जायेगा, फिर मुझे इनसे भय व शंका नहीं रहेगी । इसके लिए सत्यभामा आदि को श्रीकृष्ण ने संकेत किया । श्रीकृष्ण के संकेतानुसार सत्यभामा आदि रानियों ने वसन्त ऋतु में रेवताचल पर वसन्त क्रीड़ा करते हुए हाव-भाव - कटाक्षादि के द्वारा अरिष्टनेमि कुमार के अन्तर्हृदय में वासना जागृत करने का प्रयास किया, किन्तु वे सफल न हो सकीं। अरिष्टनेमि मन ही मन विचार रहे थे कि मोहाविष्ट प्राणी आत्म उपासना को छोड़कर वासना
६३. हरिरवेत्य निजाम्बुजनिस्वनं त्वरितमेत्य स्फुरदहीशमहाशयने स्थितं परिनिरीक्ष्य
६४. हरिवंशपुराण ५५।७१ ६५. त्रिषष्टि० पर्व ८ सर्ग ६ श्लोक ३७
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कुमारमवज्ञया ॥ नृपैः सुविसिस्मिते ।। - हरिवंशपुराण ५५ ६१
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