________________
भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण से कहा ---मुझे मल्लयुद्ध करने की आवश्यकता नहीं है, यदि आपको मेरी भुजा का बल जानना ही है तो इस आसन से मेरे पैर को विचलित कर दीजिए। - यह सुनते ही श्रीकृष्ण अपने आसन से उठे। अरिष्टनेमि को जीतने की इच्छा मन में उबुद्ध हई। श्रीकृष्ण ने अपने शरीर का सम्पूर्ण सामर्थ्य लगाया, पर अरिष्टनेमि का पैर तो क्या, उंगली भी न हिला सके ।५२ श्रीकृष्ण का शरीर पसीने में तरबतर हो गया। उनका अभिमान बर्फ को तरह गल गया। उनके अन्तनिस में यह दृढ़ विश्वास हो गया कि अरिष्टनेमि बली ही नहीं, महाबली हैं।५3 इस घटना के पश्चात् वे उनका सदा सत्कार करने लगे ।५४
उपरोक्त प्रसंग उत्तरपुराण आदि ग्रन्थों में नहीं आया है। किन्तु निम्नलिखित प्रसंग हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण दोनों में मिलता है
एकबार बसन्त ऋतु के सुनहरे अवसर पर श्रीकृष्ण अपनी पत्नियों के साथ, अरिष्टनेमि को लेकर क्रीडा करने हेतु गिरनार पर्वत पर पहुँचे ।५५ श्री कृष्ण चाहते थे कि अरिष्टनेमि किसी प्रकार संसार के आसक्त हों। एतदर्थ उन्होंने अपनी पत्नियों को आदेश दिया कि वे अरिष्टनेमि के साथ स्वच्छन्द होकर क्रीड़ा करें।५६ श्री कृष्ण के आदेश से वे विविध हाव-भाव कटाक्ष करती
५१. सह ममाभिनयोर्ध्वमुखोजिन: किमिहमल्लयुधैति तमब्रवीत् ।
भुजबलं भवतोऽग्रजबुध्यते चलय मे चरणं सहसासनम् ॥१०॥ ५२. हरिवंशपुराण ५५।११ ५३. श्रमजवारिलवाञ्चितविग्नहः प्रबलनिश्वसितोच्छ्वसितासनः ।
बलमहो तव देव ! जनातिगं स्फुटमिति स्मयमुक्तमुवाच सः ॥१२॥ ५४. उपचरन्ननुवासरमादरात् प्रियशतैजिनचन्द्रमसं हरिः । प्रणयदर्शनपूर्वकमय॑यन् स्वयमनर्घगुणं जिनमुन्नतम् ॥१३॥
-हरिवंशपुराण ५५६ से १३ पृ० ६१६-६१८ ५५. निजवधूजनलालितनेमिना हरिरमा नृपपौरपयोधिना। कुसुमितोपवनं स मधौ ययौ विदितरैवतकं रमणेच्छया ॥
-हरिवंशपुराण ५५।२६। पृ० ६१६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org