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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण सदय हृदय अरिष्टनेमि ने सोचा-यदि मैं छाती से, भुजा से, और पैरों से श्रीकृष्ण को दबाऊंगा तो इनका न जाने क्या हाल होगा। एतदर्थ ऐसा करूं कि इनको कष्ट भी न हो और ये मरो भुजा के बल को जान भी जाए। अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण से कहापृथ्वी पर इधर से उधर लोटना यह तो साधारण मानवों का कार्य है, अतः परस्पर भुजा को झुकाने के लिए ही अपना युद्ध होना चाहिए। ४६ श्रीकृष्ण को भी यह बात पसन्द आयी और उन्होंने अपनी भुजा लम्बी की। किन्तु वृक्ष की विराट शाखा के समान भुजा कमलनाल की तरह सहज रूप में अरिष्टनेमि ने झुका दी। उसके पश्चात् नेमिनाथ ने अपनी वाम भुजा लम्बी की। तब श्रीकृष्ण जैसे वृक्ष पर बंदर झूमता है, वैसे उस भुजा पर झूमने लगे। नेमिकूमार के भुजा-स्तंभ को, जैसे जंगल का हाथी बड़े पहाड़ को नहीं झुका सकता, वेसे ही वे किञ्चित् मात्र भी नहीं झुका सके। तब श्रीकृष्ण नेमिकुमार का आलिंगन करते हुए बोले-प्रिय बंधु ! जैसे बलराम मेरे बल से संसार को तृण समान समझता है, वैसे मैं भी तुम्हारे बल से विश्व को तृण समान समझता हूँ।४७ __ प्रस्तुत घटनाचित्र उनके महान् धैर्य, शौर्य और प्रबल-पराक्रम को उजागार कर रहा है।
श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि के अतूल बल को देखकर आश्चर्यचकित हुए साथ ही चिन्ताग्रस्त भी कि "कहीं यह मेरा राज्य हड़प
४६. प्रकृत्या सदयो नेमिर्दध्याविति ममोरसा ।
दोष्णा पादेन वाक्रान्तः कथं कृष्णो भविष्यति ॥ यथासौ याति नानथू मद्भुजस्थाम वेत्ति च । तथा कार्यमिति ध्यात्वा जनार्दनमभाषत । प्राकृतामिदं युद्ध मुहुर्भू लुठनाकुलम् । मिथो दो मनेनैव तद्भूयायु द्धमावयोः ।।
-त्रिषष्टि० ८।६।२२ से २४ ४७. (क) त्रिषष्टि० ८।६, २५ से २६ पृ० १३०-१३१
(ख) उत्तराध्ययन सुखबोधा २७८ (ग) भव-भावना ३०२६ (घ) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका
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