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८४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
विभज्यवाद का क्षेत्र बहुत ही व्यापक बनाया। उन्होंने अनेक विरोधी धर्मों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाया जिससे विभज्यवाद आगे चलकर अनेकान्तवाद के रूप में विश्रुत हुआ । अनेकान्तवाद विभज्यवाद का विकसित रूप है। विभज्यवाद का मूलाधार है, जो विशेष व्यक्ति हों उन्हीं में तिर्यक् सामान्य की अपेक्षा से विरोधी धर्म को स्वीकार करना । अनेकान्तवाद का मूलाधार है, तिर्यक् और ऊर्ध्वता दोनों प्रकार के सामान्य पर्यायों में विरोधी धर्मों को अपेक्षाभेद से स्वीकार करना । उदायन राजा
भगवतीसूत्र शतक १३, उद्देशक ६ में राजा उदायन का वर्णन है । उदायन ने भगवान् महावीर के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व उसने अपने पुत्र अभीचि कुमार को राज्य इसलिये नहीं दिया कि यह राज्य के मोह में मुग्ध होकर नरक आदि गतियों में दारुण वेदनां का अनुभव करेगा। उसने अपने भाणेज केशी कुमार को राज्य दिया । अभीचि कुमार के अन्तर्मानस में पिता के इस कृत्य पर ग्लानि हुई । उसने अपना अपमान समझा। वह राज्य छोड़कर चल दिया। राजा उदायन तप की आराधना कर मोक्ष गये। पर अभीचि कुमार श्रावक बनने पर भी शल्य से मुक्त नहीं हो सका, जिससे वह असुर कुमार बना । राजा उदायन का जीवनप्रसंग आवश्यकचूर्णि आदि में विशेष रूप से आया है। उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और उत्कृष्ट तप की आराधना करने से, रूक्ष और नीरस आहार ग्रहण करने से शरीर में व्याधि उत्पन्न हुई । वैद्य के परामर्श से उपचार हेतु वीतभय नगर के ब्रज में रहे, जहाँ दही सहज में उपलब्ध था । दुष्ट मन्त्री ने राजा केशी को बताया कि भिक्षुजीवन से पीड़ित होकर ये राज्य के लोभ से यहाँ आये हैं और आपका राज्य छीन लेंगे। राज्यलोभी केशी राजा ने एक ग्वाले को दही में विष मिलाकर देने हेतु कहा। उसने वैसा ही किया । नगररक्षक देवों ने कुपित होकर धूल की भयंकर वर्षा की जिससे सारा नगर धूल के नीचे दब गया | २५० राजा उदायन के सम्बन्ध में हमने विस्तार से जैन कथासाहित्य की विकास यात्रा ग्रन्थ में लिखा है, अतः जिज्ञासु पाठकगण उसका अवलोकन करें।
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