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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ७३ वैदिकपरम्परा में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को सर्वश्रेष्ठ माना है। मनुस्मृति,२०७ याज्ञवल्क्यस्मृति,२०८ गौतम स्मृति,२०९ वशिष्ठधर्मसूत्र२१० और आपस्तम्बसूत्र२११ आदि के अनुसार प्रायश्चित्त के निमित्त मृत्यु को वरण करना चाहिए। महाभारत के अनुशासनपर्व,२१२ वनपर्व २१३ और मत्स्यपुराण२१४ आदि के अनुसार अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या अनशन आदि के द्वारा देहत्याग किया जाता है तो ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा ने जो विविध साधन मृत्युवरण के बताये हैं वहाँ पर जैन परम्परा में उपवास आदि से ही मृत्यु को वरण करना श्रेयस्कर माना है। ब्रह्मचर्य आदि की सुरक्षा के लिये तात्कालिक मृत्युवरण के कुछ प्रसंग जैन साहित्य में आये हैं, पर मुख्य रूप से इस प्रकार के मरण को आत्महत्या ही माना है और उसकी आलोचना भी जैन मनीषियों ने यत्र-तत्र की है। जैन परम्परा में जीवन की आशा और मृत्यु की आशा दोनों को ही अनुचित माना है। समाधिमरण में न तो मरण की आकांक्षा होती है और न आत्महत्या ही होती है। आत्महत्या या तो क्रोध के कारण या सम्मान अथवा अपने हित पर गहरा आघात लगता है तब व्यक्ति निराशा के झले में झलने लगता है और वह आत्महत्या के लिये प्रस्तुत होता है। समाधिमरण में आहारादि के त्याग से देह-पोषण का त्याग किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम है पर उसमें मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। जिस प्रकार फोड़े की चीर-फाड़ से वेदना अवश्य होती है पर वेदना की आकांक्षा नहीं होती। समाधिमरण की क्रिया मरण के लिए न होकर उसके प्रतीकार के लिए है, जैसे व्रण का चीरना वेदना के लिए न होकर वेदना के प्रतीकार के लिए है। यही समाधिमरण और आत्महत्या में अन्तर है। समाधिमरण में भगोड़े की तरह भागना नहीं है अपित संयम की ओर अग्रसर होना है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है पर समाधिमरण में मृत्यु से भय नहीं होता। आत्महत्या असमय में मृत्यु का आमंत्रण है किन्तु समाधिमरण में मृत्यु के उपस्थित होने पर उसका सहर्ष स्वागत है। आत्महत्या के पीछे भय या कामना रही हुई होती है जबकि समाधिमरण में भय और कामना का अभाव रहता है।
कितने ही आलोचक जैनदर्शन की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि जैनदर्शन जीवन से इकरार नहीं अपितु इनकार करता है। पर उनकी यह आलोचना भ्रान्त है। जैनदर्शन ने जीवन के मिथ्यामोह से इनकार किया है।
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