________________
मृत्यु : एक कला (समाधि-मरण)
....................
.......................
मृत्यु एक कला है। इस कला के सम्बन्ध में जैन मनीषियों ने विस्तार से विश्लेषण किया है। जैन मनीषियों ने मरण के दो प्रकार बताये-बालमरण
और पण्डितमरण। दूसरे शब्दों में उसे असमाधिमरण और समाधिमरण भी कह सकते हैं। एक ज्ञानी की मृत्यु है, दूसरी अज्ञानी की मृत्यु है। अज्ञानी विषयासक्त होता है। वह मृत्यु से कांपता है। उससे बचने के लिए वह अहर्निश प्रयास करता है, पर मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। पर ज्ञानी मृत्यु का आलिंगन करने के लिए सदा तत्पर रहता है। उसकी शरीर के प्रति आसक्ति नहीं होती। वह समभाव से मृत्यु को वरण करता है। उस मरण में किंचिन्मात्र भी कषाय नहीं होता। जब साधक देखता है कि अब शरीर साधना करने में सक्षम नहीं रहा है तब वह निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करता है।
बालमरण के प्रस्तुत आगम में जो बारह प्रकार प्रतिपादित हैं उनमें कषाय की मात्रा की प्रधानता है। क्रोध, अहंकार आदि के कारण ही वह मृत्यु को स्वीकार करता है। उस मृत्यु को स्वीकार करने पर भी मृत्यु की परम्परा समाप्त नहीं होती प्रत्युत वह परम्परा लम्बी होती चली जाती है। पण्डितमरण में साधक समस्त प्राणियों से सर्वप्रथम क्षमायाचना करता है। गृहीत व्रतों में यदि असावधानीवश स्खलनाएं हुई हों तो उन दोषों की आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है। पापस्थानकों का परित्याग कर प्रसन्नतापूर्वक वह मरण स्वीकार किया जाता है। मरण काल में चाहे कितने ही कष्ट आएँ, साधक उनको समभावपूर्वक सहन करता है। यह पण्डितमरण आत्महत्या नहीं है पर मृत्यु को वरण करने की श्रेष्ठ कला है।
संयुत्तनिकाय में असाध्य रोग से संत्रस्त भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र२०५ व भिक्षु छन्न२०६ ने आत्महत्या की। तथागत बुद्ध ने उन दोनों भिक्षुओं को निर्दोष कहा और यह बताया कि दोनों भिक्षु परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं। जापान में रहने वाले बौद्धों में हरीकरी की प्रथा आज भी प्रचलित है। पर जैनपरम्परा और बौद्ध परम्परा के मृत्यु-वरण में अन्तर है। बौद्धपरम्परा में शस्त्रवध से तत्काल या उसी क्षण मृत्यु प्राप्त करना श्रेष्ठ माना है, जबकि जैनपरम्परा में इस प्रकार मृत्यु को वरण करना उचित नहीं माना गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org