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५८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन स्वाध्याय से मन का मैल नष्ट होता है। अतः नियमित स्वाध्याय करना चाहिये।
भगवतीसूत्र,१५१ स्थानांग,१५२ औपपातिक१५३ प्रभृति आगम साहित्य में स्वाध्याय के पांच प्रकार बताये हैं। वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा
और धर्मकथा तथा इनके भी अवान्तर भेद किये गये हैं। स्वाध्याय से ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है। ___अन्तरंग तप का पाँचवाँ प्रकार ध्यान है। मन की एकाग्र अवस्था ध्यान है। आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान-चिन्तामणि कोष में लिखा है-अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है ।१५४ आचार्य भद्र बाहु ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है-चित्त को किसी भी विषय में एकाग्र करना, स्थिर करना, ध्यान है|१५५
जिज्ञासा हो सकती है कि मन का किसी भी विषय में स्थिर होना ही यदि ध्यान है तो लोभी व्यक्ति का ध्यान सदा धन कमाने में लगा रहता है, चोर का ध्यान वस्तु को चुराने में लगा रहता है, कामी का ध्यान वासना की पूर्ति में लगा रहता है, क्या वह भी ध्यान है ? समाधान है कि पापात्मक चिन्तन की एकाग्रता भी ध्यान है। भारत के तत्त्वदर्शी मनीषियों ने ध्यान को दो भागों में विभक्त किया है-एक शुभ ध्यान है और दूसरा अशुभ ध्यान है। शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है तो अशुभ ध्यान नरक और तिर्यञ्च का कारण है। अशुभ ध्यान अधोमुखी होता है तो शुभ ध्यान ऊर्ध्वमुखी होता है। अशुभ ध्यान अप्रशस्त है, शुभ ध्यान प्रशस्त है। इसीलिये स्थानांग आदि में ध्यान के चार प्रकार बताये हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इन चार प्रकारों में प्रथम दो प्रकार अशुभ ध्यान के हैं। वे दोनों प्रकार तप की कोटि में नहीं आते। अतः आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने ध्यान की परिभाषा इस प्रकार की है-शुभ और पवित्र आलम्बन पर एकाग्र होना ध्यान है।५६ मन की अन्तर्मुखता, अन्तर्लीनता शुभ ध्यान है। मन स्वभावतः चंचल है। वह लम्बे समय तक एक वस्तु पर स्थिर नहीं रह सकता। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि छद्मस्थ का मन अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक यानी ४८ मिनिट तक एक आलम्बन पर स्थिर रह सकता है, उससे अधिक नहीं। पवित्र विचारों में मन को स्थिर करना धर्मध्यान है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा का, आत्मा के द्वारा, आत्मा के विषय में सोचना, चिन्तन करना धर्मध्यान है।
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