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२६ भगवती सूत्र : एक परिशीलन सम्बन्ध है। वह लिपि सेमेटिक लिपि को भी जन्म देने वाली है। विद्वानों का ऐसा मन्तव्य है कि इस सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन की आवश्यकता है।
एडवर्ड थामस, गोल्ड स्टूकर, राजेन्द्रलाल मित्र, लास्सेन, डासन, कनिंघम आदि विज्ञों का मानना है कि ब्राह्मीलिपि का उद्भवस्थल भारत ही है। पर इनका यह मानना है कि अतीत काल में आर्यभाषी जनता द्वारा किसी चित्रलिपि का प्रयोग किया जाता होगा। सम्भव है, उसी से ब्राह्मीलिपि का जन्म हुआ है। बूलर ने इस मन्तव्य का विरोध करते हुए कहा-भारत में चित्रलिपि नहीं थी फिर उससे ब्राह्मी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ? | __ डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का मन्तव्य है कि भारत की जो लिपियाँ अभी तक पढ़ी जा सकी हैं, उनमें ब्राह्मीलिपि सबसे प्राचीन है। यही भारतीय आर्यभाषाओं से सम्बन्धित प्राचीनतम लिपि है।७२ अधुनातन अन्वेषणा से यह निष्कर्ष प्रकट हो चुका है कि ब्राह्मी भारत की लिपि है। लिपिविद्याविशारद डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के शब्दों में ब्राह्मीलिपि अपनी प्रौढ़ अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिलती है और उसका किसी बाहरी स्रोत
और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता। इस लिपि के आद्य निर्माता ऋषभदेव रहे हैं। इस कारण भगवती में ब्राह्मीलिपि को नमस्कार कर भगवान् ऋषभदेव को और अक्षरश्रुत को नमस्कार किया गया है। अक्षरश्रुत के रूप में ज्ञान को नमस्कार किया गया है। पञ्च ज्ञानों में श्रुत ज्ञान ही सबसे अधिक व्यवहार-योग्य एवं उपकारक है। इसीलिए 'नमो बंभीए लिवीए' के द्वारा भावश्रुत को नमस्कार किया गया है।
प्रस्तुत आगम में तीसरा नमस्कार 'नमो सुयस्स' के रूप में श्रुत को किया गया है। मतिज्ञान के पश्चात् शब्दसंस्पर्शी जो परिपक्व ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। दूसरे शब्दों में श्रुतज्ञान का अर्थ है-वह ज्ञान जिसका शास्त्र से सम्बन्ध हो। आप्तपुरुष द्वारा रचित आगम व अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है-वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद हैं। अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के १२ भेद हैं।७३ श्रुत वस्तुतः ज्ञानात्मक है। ज्ञानोत्पत्ति के साधन होने के कारण उपचार से शास्त्रों को भी श्रत कहा गया है। श्रुत ही भावतीर्थ है। द्वादशांगी के सहारे ही भव्यजीव संसार-सागर से पार उतरते हैं। इसलिए श्रुत को नमस्कार किया गया है। इस नमस्कार से श्रुत की महत्ता प्रदर्शित की गई है। साधकों के अन्तर्मानस में थ्रत के प्रति गहरी निष्ठा उत्पन्न की गई है, जिससे वे श्रुत का सम्मान करें और श्रुत को एकाग्रता से श्रवण करें।
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