SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन अर्थात् मंस्तक से उत्पन्न होने वाला है। यह समचतुरस्र संस्थान वाला, रस रुधिरादि सप्त धातुओं से रहित होता है। इतरेतराभाव-स्वरूपान्तर से स्वरूप की व्यावृत्ति इतरेतराभाव है। इन्द्र-अन्य देवों में नहीं पाई जाने वाली असाधारण अणिमा-महिमादि ऋद्धियों का धारक देवाधिपति इन्द्र है। इन्द्रभूति-पूर्वभव में आदित्य विमान में देव थे। ये गौतम गोत्रीय ब्राह्मण और वेदपाठी थे। भगवान महावीर के समवसरण में आत्मा के अस्तित्व पर चर्चा करते हुए मान भंग हो गया और अपने ५०० शिष्यों सहित दीक्षा धारण करली। तभी सात ऋद्धियां प्राप्त हो गईं थीं। भगवान महावीर के प्रथम गणधर थे। आपको बैशाख शुक्ला ११ के पूर्वाह्नकाल में श्रुतज्ञान जागृत हुआ। उसी तिथि की पूर्व रात्रि में आपने अंगों की रचना करके सारे श्रुत को आगम निबद्ध कर दिया। कार्तिक शुक्ला १ को आपको केवलज्ञान प्रकट हुआ और विपुलाचल पर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए। इन्द्रिय-परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले आत्मा को इन्द्र कहते हैं, इस इन्द्र के लिङ्ग या चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। अथवा जो जीव की अर्थोपलब्धि में निमित्त होती है उसे इन्द्रिय कहते हैं। वे इन्द्रियां श्रोत्रादि पांच हैं। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-सत् यद्यपि त्रिकाल नित्य है परन्तु निरन्तर परिणमन होते रहने के कारण उसमें सतत नवीन अवस्था का उत्पाद तथा पूर्व अवस्था का विनाश होता रहता है। अतः पदार्थ नित्य होते हुए भी कथंचित् अनित्य है और अनित्य होते हुए भी कथंचित नित्य है। वस्तु में ही नहीं, उसके प्रत्येक गुण में भी यह स्वाभाविक व्यवस्था निराबाध है। ___ उत्सर्पिणी-जिस काल में बल, बुद्धि, आयु आदि की क्रमशः वृद्धि होती रहती है, वह काल। यह दस कोटा-कोटी सागरोपम का होता है। उद्योतनाम-जिसके निमित्त से शरीर में उद्योत होता है। उष्णता रहित प्रभा को उद्योत कहते हैं। यह चन्द्रबिम्ब और जुगनू आदि में होता है। उपमान-प्रसिद्ध अर्थ की समानता के आधार पर अप्रसिद्ध को जानना उपमान है। जैसे “गो की भांति गवय होता है" इस आधार पर “गवय" को समझना। उपयोग-चेतना का नाम उपयोग है। चेतना सामान्य गुण है और ज्ञान-दर्शन ये दो उसकी अवस्थाएं हैं। इन्हीं को उपयोग कहते हैं। शुभ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy