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भगवती सूत्र : एक परिशीलन २०५ भगवान् ने कहा-गौतम ! वे अतीतकाल में ग्रहण किये हुए पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, वे न वर्तमान काल में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की उदीरणा करते हैं और न ग्रहण समय पुरस्कृत पुद्गलों की उदीरणा करते
___इसी तरह अतीत काल में गृहीत पुद्गलों की वेदना और निर्जरा होती
-भगवती श. १, उ. १, सूत्र ८/९/१० फल विपाक
एक समय भगवान महावीर राजगृह के गुणशीलक नामक चैत्य में समवसृत थे। उस समय कालोदायी नामक अनगार ने भगवान से पूछाभगवन् ! जीवों के किये हुए पाप-कर्मों का परिपाक पापकारी होता है ?
भगवान्-हां, कालोदायी होता है। कालोदायी-भगवन् ! यह कैसे होता है ?
भगवान-कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक-शुद्ध (परिपक्व) अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण विष सहित भोजन करता है वह भोजन आपातभद्र यानि खाते समय अच्छा लगता है, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों उसमें दुर्गन्ध पैदा होती है-वह परिणाम-भद्र नहीं होता। कालोदायी ! इसी तरह प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से अठारह प्रकार के पाप आपातभद्र और परिणाम विरस होते हैं। कालोदायी ! इस प्रकार पाप-कर्म पाप-विपाक वाले होते हैं।
कालोदायी ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! क्या जीवों के किये हुए कल्याण कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है?
भगवान-हां, होता है। कालोदायी-भगवन् ! वह कैसे?
भगवान-कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ स्थालीपाक (परिपक्व) अठारह प्रकार के व्यंजनों से परिपूर्ण भोजन करता है जो विविध प्रकार की
औषधियों से युक्त है वह भोजन आपातभद्र नहीं लगता परन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों उसमें सुरूपता, सुवर्णता और सुखानुभूति समुत्पन्न होती है, वह परिणाम भद्र होता है। इसी तरह प्राणातिपात-विरति
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