________________
१९८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन ही। जैसे-कोई आदमी दिल्ली से चल पड़े कलकत्ता के लिए, तो जो पहला कदम उठाएगा वह भी कलकत्ता के लिए उठाएगा और अंतिम कदम जितना कलकत्ता में पहुँचाएगा उतना ही पहला कदम भी पहुँचा रहा है। और अगर पहला नहीं पहुँचाएगा तो अन्तिम कदम भी नहीं पहुंचा सकता है। यानि जब दिल्ली से कलकत्ता चलने का पहला कदम उठाया, तभी वह कलकत्ता पहुँचने लगा। कलकत्ता एक कदम पास आ गया और एक एक कदम पास आता जाता है। हालांकि हो सकता है वह छह महिने बाद यह कहे, कि अब कलकत्ता आया, लेकिन वह छह महिने पहले ही आना शुरू हो गया था इसलिए छह महिने बाद आ चुका है।
अथवा पानी को कोई गर्म कर रहा है, पहली डिग्री पर गर्म हो गया, अभी भाप नहीं बना, भाप तो सौ डिग्री पर बनेगा। लेकिन पहली डिग्री पर भी पानी भाप बनने के करीब पहुँचने लगा। क्योंकि सौवीं डिग्री भी एक डिग्री है और पहली डिग्री भी एक ही डिग्री है। ९९ से १00 तक जो यात्रा करनी पड़ी है वही यात्रा एक से सौ तक करनी पड़ी है उसमें कोई फर्क नहीं है। पर ९९ डिग्री तक हम अपने को धोखा देते हैं, कि पानी अभी भाप नहीं बना। १00वीं डिग्री के करीब आती जाएगी। “चलमाणे चलिए" का सिद्धान्त यही सिखाता है कि मोक्ष गया नहीं है, लेकिन जाने लगा कि गया समझो। __ तात्पर्य यह है-स्थूलदृष्टि से घट बनाना एक क्रिया समझी जाती है। किन्तु सूक्ष्म विचार से प्रतीत होता है कि कुंभकार के घट बनाने के संकल्प से लेकर घट की अन्तिम निष्पत्ति तक अनेकानेक-अगणित क्रियाएँ होती हैं। कुंभार का मिट्टी लाना, उसे पानी से भिगोना, मसलना, पिण्ड बनाना, पिण्ड को हाथों में लेना, चाक पर रखना, दंड ग्रहण करना, दंड को चाक के गड्ढे में स्थापित करना, चाक को घुमाना, चाक के घूमने में वेग उत्पन्न करना, दंड को हटाना, एक ओर रख देना, पिंड को शिवक, छत्रक आदि अनेक आकारों में परिणत करना, ये सब अनेक क्रियाएँ हैं। इनके बीच-बीच में भी अनेक सूक्ष्मतर क्रियाएँ होती हैं। उनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। वस्तुतः एक-एक समय में अलग-अलग एक-एक क्रिया होती है और निश्चयनय की दृष्टि से जिस समय में क्रिया का प्रारम्भ होता है उसी समय में उस क्रिया की समाप्ति हो जाती है। इस अपेक्षा से “चलमाणे चलिए" यह कथन युक्तियुक्त सिद्ध होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org