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६ भगवती सूत्र : एक परिशीलन रजः अष्टप्रकारं कर्म अपनयति ततः सरणात् सूत्रम् (वृहत्कल्प टीका पृ. ७५) जिसके अनुसरण से कर्मों का सरण/अपनयन होता है वह सूत्र है; इस अर्थ में है। जैन आगमों में विविध प्रकार के अर्थों का बोध कराने की शक्ति रही हुई है, इसलिए भी जैन आगमों को सूत्र कहा गया है। आगम का पर्यायवाची : प्रवचन
आगम का एक पर्यायवाची शब्द 'प्रवचन' भी है। सामान्य व्यक्ति की वाणी वचन है और विशिष्ट महापुरुषों के वचन प्रवचन हैं। आगम साहित्य में प्रशस्त और प्रधान श्रुतज्ञान को प्रवचन की संज्ञा ही गई है। आगमों में अनेक स्थलों पर निर्ग्रन्थ प्रवचन शब्द का प्रयोग हुआ है। भगवती में साधकों के जीवन का चित्रण करते हुए कहा है "णिग्गंथे पावयणे अढे, अयं परमठे, सेसे अणठे ... निग्गंथे पावयणे निस्संकिया'१२ अर्थात निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थ वाला है, परमार्थ वाला है, शेष अनर्थकारी हैं . . . . निर्ग्रन्थ प्रवचन में निःशंकित हो अर्थात् उसकी सम्पूर्ण आस्था निर्ग्रन्थ प्रवचन में ही केन्द्रित हो।
गणधर गौतम ने एक बार जिज्ञासा प्रस्तुत की-"भगवन् ! प्रवचन, प्रवचन कहलाता है या प्रवचनी, प्रवचन कहलाता है।" ।
समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-“अरिहन्त प्रवचनी है और द्वादश अंग प्रवचन है।"१३. ___ आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है-तप-नियम-ज्ञानरूप वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान् भव्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञानकुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपट पर उन कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गूंथते हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नियुक्ति में आए हुए प्रवचन शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है-'पगयं वयणं पवयणमिह सुयनाणं'........... पवयणमहवा संघो'१५ अर्थात् प्रकट वचन ही प्रवचन है; दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संघ प्रवचन है। संघ को प्रवचन कहने का कारण यह है कि संघ का जो ज्ञानोपयोग है-वही प्रवचन है। इसलिए संघ और ज्ञान का अभेद मानकर संघ को प्रवचन कहा है। यहाँ पर वचन के आगे जो 'प्र' उपसर्ग लगा है; वह प्रशस्त और प्रधान इन दो अर्थों में आया है। प्रशस्त वचन प्रवचन है अथवा प्रधान वचनरूप श्रुतज्ञान प्रवचन है। श्रुतज्ञान में भी द्वादशांगी प्रधान है इसलिए वह द्वादशांगी प्रवचन है।
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