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१६२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
भगवान कहते हैं - गौतम ! यह लोक पंचास्तिकाय रूप है। अर्थात् जिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये पांच अस्तिकाय हैं वह लोक है।
सातवीं पृथ्वीं के नीचे लोक के अंतिम भाग से लेकर सिद्धशिला के ऊपर एक योजन तक लोक का परिमाण चौदह राजू है ।
- भग. शतक १३, उ. ४, सूत्र १३
लोक- अलोक का पौर्वापर्य
श्रमण भगवान महावीर स्वामी के "रोह" नाम के एक शिष्य थे। एक बार तत्त्व चिन्तन करते हुए उनके अन्तर्मानस में कुछ शंकाएं उठीं। उन्होंने भगवान से जिज्ञासाएं प्रस्तुत करते हुए कहा
भगवन् ! क्या पहले लोक है, बाद में अलोक ? या पहले अलोक है बाद में लोक ?
महावीर - लोक अलोक दोनों ही शाश्वत भाव हैं अतः इनमें पहले-पीछे का क्रम नहीं है।
रोह - भन्ते ! क्या पहले जीव है, बाद में अजीव ? या पहले अजीव है बाद में जीव?
महावीर - आर्य ! जीव भी शाश्वत है, अजीव भी शाश्वत है, इसलिये इनमें पहले पीछे का क्रम नहीं हो सकता ( पहले -पीछे होना वस्तु की आदि और अशाश्वतता सिद्ध करता है ) ।
इसी प्रकार भवसिद्धिक- अभवसिद्धिक, सिद्ध-असिद्ध सिद्धि-असिद्धि आदि भी शाश्वत भाव हैं। इनमें पहले पीछे का क्रम नहीं है।
रोह - भन्ते ! पहले अंडा हुआ और पीछे मुर्गी हुई या पहले मुर्गी, पीछे अण्डा हुआ ?
महावीर - अण्डा कहां से आया ?
रोह - मुर्गी से ।
महावीर - मुर्गी कहां से आई ?
रोह - अण्डे से ।
महावीर - तो फिर दोनों में पहले कौन और पीछे कौन, यह कैसे कहा जा सकता है ? दोनों पहले भी हैं और पीछे भी । जैसे मुर्गी के बिना अंडा
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