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११६ भगवती सूत्र : एक परिशीलन कषाय चर्चा
भगवतीसूत्र शतक अठारह, उद्देशक चार में भगवान् ने कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रकार बताये हैं। कषाय शब्द भी जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द कष् और आय इन दो शब्दों के मेल से बना है। कष् का अर्थ संसार, कर्म और जन्म-मरण है। जिसके द्वारा प्राणी कर्मों से बांधा जाता है या जिससे जीव जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है। कषाय ऐसी मनोवृत्तियाँ हैं जो कलुषित हैं, इसी कारण कषाय को संसार का मूल कहा है। उपयोग और उसके प्रकार
भगवतीसूत्र शतक सोलह, उद्देशक सात में उपयोग के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है। भगवान् ने उपयोग के साकार और निराकार ये दो भेद किये और साकार उपयोग में ज्ञान और निराकार उपयोग में दर्शन को लिया है। साकार उपयोग के आठ प्रकार और निराकार उपयोग यानी दर्शन के चार प्रकार बताये हैं। ज्ञान और दर्शन-रूप चेतना का जो व्यापार यानी प्रवृत्ति है, वह उपयोग है। उपयोग को जीव का लक्षण माना है। इसलिए प्रत्येक प्राणी में उपयोग है, पर अविकसित प्राणियों का उपयोग अव्यक्त होता है और विकसित प्राणियों का व्यक्त होता है। उपयोग की प्रबलता का कारण है ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म का क्षय और क्षयोपशम। जितना अधिक क्षयोपशम होगा उतना ही अधिक उपयोग निर्मल होगा। ज्ञानोपयोग में ज्ञेय पदार्थ की भिन्न-भिन्न आकृतियों की प्रतीति होती है तो दर्शनोपयोग में एकाकार प्रतीति होती है। उसमें ज्ञेय पदार्थ के अस्तित्व का ही बोध होता है। इसलिए उसमें आकार नहीं बनता। ज्ञान के जो पांच और अज्ञान के जो तीन प्रकार बताये हैं, उसका कारण सम्यक्त्व और मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के कारण ज्ञान भी अज्ञान में बदल जाता है। मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान विशिष्ट साधकों को ही होते हैं इसलिए वे ज्ञान ही हैं, यहाँ यह भी जिज्ञासा हो सकती है-ज्ञान के पांच और दर्शन के चार ही भेद क्यों बताये? मनःपर्यव को दर्शन क्यों नहीं कहा ? उत्तर हैमनःपर्यवज्ञान में मन की विविध आकृतियों को जीव ज्ञान से पकड़ता है, इसलिए वह ज्ञान है। दर्शन का विषय निराकार है। इसलिए मनःपर्यव दर्शन नहीं है।
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