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एकीभाव स्तोत्र ]
[ ७१ वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापै। भंग-तरंगनि विकथ-वाद-मल मलिन उथापै॥ मन-सुमेरुसों मथै ताहि जे सम्यग्ज्ञानी। परमामृतसों तृपत होंहि ते चिरलों प्रानी॥१८॥
जो कुदेव छवि-हीन वसन-भूषन अभिलाखै। बैरीसों भयभीत होय, सो आयुध राखै॥ तुम सुन्दर सर्वंग, शत्रु समरथ नहिं कोई। भूषन-वसन गदादि ग्रहन काहे को होई ॥१९ ।।
सुरपति सेवा करै, कहा प्रभु, प्रभुता तेरी। सो सलाघना लहै, मिटै जगसों जगफेरी॥ तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकंत उचरिये। तुही जगतजन-पाल, नाथ, थुति की थुति करिये।॥२०॥
वचन-जाल जड़-रूप, आप चिन्मूरति झाँई। तारौं थुति आलाप नाहिं, पहुँचे तुम ताँई ।। तौ भी निर्फल नाहिं भक्ति-रस-भीने बायक। सन्तन को सुरतरु समान वांछित वर-दायक ॥२१॥
कोप कभी नहिं करो, प्रीति कबहूँ नहिं धारो। अति उदास बेचाह चित्त, जिनराज तिहारो॥ तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये। यह प्रभुता जगतिलक कहाँ तुम बिन सरदहिये।।२२।।
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