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एकीभाव स्तोत्र ]
[६३ हे जिनेन्द्र ! जो एकनिष्ठ तव, निरखत इकटक कमल-वदन। भक्तिसहित सेवा से पुलकित, रोमाञ्चित है जिनका तन॥ अथवा रोमावलि के ही जो, पहिने हैं कमनीय वसन। यों विधिपूर्वक स्वामिन् तेरा, करते हैं जो अभिनन्दन ॥४३॥
जन-दृगरूपी 'कुमुद' वर्ग के, विकसावनहारे राकेश। भोग भोग स्वर्गों के वैभव, अष्टकर्मफल कर नि:शेष । स्वल्पकाल में मुक्तिधाम की, पाते हैं वे दशाविशेष । जहाँ सौख्यसाम्राज्य अमर है, आकुलता का नहीं प्रवेश ॥४४॥
पद्यानुवाद
(दोहा) वादिराज मुनिराज के, चरन-कमल चित लाय। भाषा एकीभाव की, करूँ स्व-पर सुखदाय॥
(रोला) जो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी। सो मुझ कर्म-प्रबन्ध करत भव भव दुख भारी॥ ताहि तिहारी भक्ति-जगत-रवि जो निरवार। तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदारै॥१॥
तुम जिन जोति-सरूप दुरित-अँधियार निवारी। सो गनेस-गुरु कहैं तत्त्व-विद्या-धनधारी॥ मेरे चित-घर माहिं बसौ तेजोमय यावत। पाप-तिमिर अवकास तहाँ सो क्योंकर पावत ॥२॥
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