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कल्याणमन्दिर स्तोत्र
[ ६१ देखा भी है, पूजा भी है, नाम आपका श्रवण किया। भक्तिभाव अरु श्रद्धापूर्वक, किन्तु न तेरा ध्यान किया। इसीलिए तो दुखों का मैं, गेह बना हूँ निश्चित ही। फलै न किरिया बिना भाव के, है लोकोक्ति सुप्रचलित ही ॥३८॥
दीन दुखी जीवों के रक्षक, हे करुणा सागर प्रभुवर। शरणागत के हे प्रतिपालक, हे पुण्योत्पादक! जिनेश्वर । हे जिनेश ! मैं भक्तिभाव वश, शिर धरता तुमरे पग पर। दुःख मूल निर्मूल करो प्रभु, करुणा करके अब मुझ पर ॥३९॥
हे शरणागत के प्रतिपालक, अशरण जन को एक शरण। कर्मविजेता त्रिभुवन नेता, चारु चन्द्रसम विमल चरण॥ तव पद-पङ्कज पा करके हे, प्रतिभाशाली बड़भागी। कर न सका यदि ध्यान आपका, हूँ अवश्य तब हतभागी ॥४० ।
अखिल वस्तु के जान लिए हैं, सर्वोत्तम जिसने सब सार। हे जगतारक! हे जगनायक! दुखियों के हे करुणागार । वन्दनीय हे दयासरोवर! दीन दुखी का हरना त्रास। महा-भयङ्कर भवसागर से, रक्षा कर अब दो सुखवास ॥४१ ।।
एक मात्र है शरण आपकी, ऐसा मैं हूँ दीनदयाल। पाऊँफल यदि किञ्चित करके, चरणों की सेवा चिरकाल॥ तो हे तारनतरन नाथ हे अशरण शरण मोक्षगामी। बने रहें इस परभव में बस, मेरे आप सदा स्वामी ॥४२॥
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