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कल्याणमन्दिर स्तोत्र
[ ५९ कालरूप विकराल वक्ष विच, मृतमुंडन की धरिमाला। अधिक भयावह जिनके मुख से, निकल रही अग्निज्वाला ॥ अगणित प्रेत पिशाच असुर ने, तुम पर स्वामिन भेज दिये। भव भव के दुख हेतु क्रूर ने, कर्म अनेकों बांध लिए ॥३३॥
पुलकित वदन सु-मन हर्षित हो, जो जन तज मायाजंजाल। त्रिभुवनपति के चरण-कमल की, सेवा करते तीनों काल॥ तुव प्रसाद” भविजन सारे, लग जाते भवसागर पार । मानव जीवन सफल बनाते, धन्य-धन्य उनका अवतार ॥३४॥
इस असीम भव-सागर में नित, भ्रमत अकथ बहु दुख पायो। तोऊ सु-वश तुम्हारो सांचो, नहिं कानों मैं सुन पायो। प्रभु का नाम-मंत्र यदि सुनता, चित्त लगा करके भरपूर। तो यह विपदारूपी नागिन, पास न आती रहती दूर ॥३५ ॥
पूरव भव में तव चरनन की, मनवांछित फल की दातार। की न कभी सेवा भावों से, मुझ को हुआ आज निरधार । अत: रंक जन मेरा करते, हास्य सहित अपमान अपार। सेवक अपना मुझे बना लो, अब तो हे प्रभु जगदाधार ॥३६॥
दृढ़ निश्चय करि मोह-तिमिर से, मुंदे-मुंदे से थे लोचन। देख सका ना उनसे तुमको, एक बार हे दुःखमोचन ॥ दर्शन कर लेता गर पहिले, तो जिसकी गति प्रबल अरोक। मर्मच्छेदी महा अनर्थक, माना कभी न दुख के थोक ॥३७
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