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________________ कल्याणमन्दिर स्तोत्र] [ ५७ झुके हुये इन्द्रों मुकुटों, को तज करके सुमनों के हार। रह जाते जिन चरणों में ही, मानो समझा श्रेष्ठ आधार । प्रभु का समागम सुन्दर तज, सु-मनस कहीं न जाते हैं। तव प्रभाव से वे त्रिभुवनपति ! भव-समुद्र तिर जाते हैं ॥२८॥ भव-सागर से तुम पराङ्मुख, भक्तों को तारो कैसे। यदि तारो तो कर्म-पाक के, रस से शून्य अहो कैसे। अधोमुखी परपक्व कलश ज्यों, स्वयं पीठ पर रख करके। ले जाता है पार सिन्धु के, तिरकर और तिरा करके॥२९॥ जगनायक जगपालक होकर, तुम कहलाते दुर्गत क्यों। यद्यपि अक्षर मय स्वभाव है तो, फिर अलिखित अक्षत क्यों। ज्ञान झलकता सदा आप में, फिर क्यों कहलाते अनजान। स्व-पर प्रकाशक अज्ञ जनों को, हे प्रभु! तुम ही सूर्य समान ॥३०॥ पूरव वैर विचार क्रोध करि, कमठ धूलि बहु बरसाई। कर न सका प्रभु तव तन मैला, हुआ मलिन खुद दुखदाई॥ कर करके उपसर्ग घनेरे, थक कर फिर वह हार गया। कर्मबन्ध कर दुष्ट प्रपंची, मुँह की खाकर भाग गया॥३१॥ उमड़ घुमड़ कर गर्जत बहुविध, तड़कत बिजली भयकारी। बरसा अति घनघोर दैत्य ने, प्रभु के सिर पर कर डारी॥ प्रभु का कुछ न बिगाड़ सकी वह, मूसल सी मोटी धारा। स्वयं कमठ ने हठधर्मी वश, निग्रह अपना कर डारा ॥३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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