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कल्याणमन्दिर स्तोत्र ]
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उज्ज्वल हेम सुरत्न पीठ पर, श्याम सु-तन शोभित अनुरूप । अतिगंभीर सु-निःसृत वाणी, बतलाती है सत्य स्वरूप ॥ ज्यों सुमेरु पर ऊँचे स्वर से, गरज गरज घन बरसें घोर । उसे देखने सुनने को जन, उत्सुक होते जैसे मोर ॥ २३ ॥
तुव तन भा-मण्डल से होते, सुरतरु के पल्लव छवि - छीन । प्रभु प्रभाव को प्रकट दिखाते हो जड़ रूप चेतना - हीन ॥ जब जिनवर की समीपतातैं, सुरतरु हो जाता गत-राग । तब न मनुज क्यों होवेगा जप, वीतराग खो करके राग ॥२४॥
नभ-मण्डल में गूँज गूँज कर, सुरदुन्दुभि कर रही निनाद । रे रे प्राणी आतम हित नित, भज ले प्रभु को तज परमाद ॥ मुक्ति धाम पहुँचाने में जो, सार्थवाह बन तेरा साथ । देंगे त्रिभुवनपति परमेश्वर, विघ्नविनाशक पारसनाथ ॥२५ ॥
अखिल विश्व में हे प्रभु! तुमने, फैलाया है विमल - प्रकाश । अतः छोड़कर स्वाधिकार को, ज्योतिर्गण आया तव पास ॥ मणि - मुक्ताओं की झालर युत, आतपत्र का मिस लेकर । त्रिविध-रूप धर प्रभु को सेवे, निशिपति तारान्वित होकर ॥ २६ ॥
हेम-रजत- माणिक से निर्मित, कोट तीन अति शोभित से। तीन लोक एकत्रित होके, किये प्रभु को वेष्ठित से ॥ अथवा कान्ति-प्रताप- सुयश के, संचित हुए सुकृत से ढेर । मानो चारों दिशि से आके, लिया इन्होंने प्रभु को घेर ॥ २७ ॥
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