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कल्याणमन्दिर स्तोत्र
[ ५३ मिथ्या-तन-अज्ञान रहित, सुज्ञानमूर्ति हे परम यती। हरिहरादि ही मान अर्चना, करते तेरी मन्दमती॥ है यह निश्चय प्यारे मित्रो, जिनके होत पीलिया रोग। श्वेत शंख को विविध वर्ण, विपरीत रूप देखे वे लोग ॥१८॥
धर्म-देशना के सुकाल में, जो समीपता पा जाता। मानव की क्या बात कहूँ तरु, तक अ-शोक है हो जाता। जीव-वृन्द नहिं केवल जाग्रत, रवि के प्रकटित ही होते। तरु तक सजग होत अति हर्षित, निद्रा तज आलस खोते ॥१९॥
है विचित्रता सुर बरसाते, सभी ओर से सघन-सुमन। नीचे डंठल ऊपर पंखुरी, क्यों होते हैं हे भगवान। है निश्चित, सुजनों सुमनों के, नीचे को होते बन्धन। तेरी समीपता की महिमा है, हे वामा देवी नन्दन ॥२०॥
अति गम्भीर हृदय-सागर से, उपजत प्रभु के दिव्यवचन। अमृततुल्य मान कर मानव, करते उनका अभिनन्दन ॥ पी-पीकर जग-जीव वस्तुतः, पा लेते आनन्द अपार । अजर अमर हो फिर वे जग की, हर लेते पीड़ा का भार ॥२१॥
दुरते चारु-चँवर अमरों से, नीचे से ऊपर जाते। भव्यजनों को विविधरूप से, विनय सफल वे दर्शाते। शुद्धभाव से नतशिर हो जो, तव पदाब्ज में झुक जाते। परमशुद्ध हो ऊर्ध्वगती को, निश्चय करि भविजन पाते ॥२२॥
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