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________________ विषापहार स्तोत्र ] [ ३१ शक्त इन्द्र का स्तुति करने का नहीं रहा चाहे सामर्थ्य। मैं नहिं छोडूंगा स्तुति करना, मेरी भक्ति न होगी व्यर्थ ॥ स्वल्प ज्ञान से अधिक प्रयोजन होगा स्वामिन ! मेरा सिद्ध। खिड़की से भी बहु चीजों का देखा जाना जगत प्रसिद्ध ॥३॥ सकल विश्व के द्रष्टा तुम हो, तुम्हें न कोई देख सके। सकल विश्व के ज्ञाता तुम, पर तुम्हें न कोई जान सके। तुम कितने हो ? कैसे क्या हो? यह भी कहा न जा सकता। तेरी स्तुति का असामर्थ्य ही स्तवन यहाँ कहला सकता।४॥ पूर्वोपार्जित निज दोषों से जग रोगी है बाल समान। प्रभो! आप भवरोग मिटा कर उसे किया नीरोग महान ।। निज हित-अहित ज्ञान में शिशु सम सभी प्राणियों के तुम वैद्य। औषधि बतलाई सर्वोत्तम जो अचूक अनमोल अभेद्य ॥५॥ हे अच्युत! तेरे बिन कोई देने लेने में न समर्थ। यों ही आशा दिखा दिखा कर रवि ज्यों बहलाते हैं व्यर्थ । कई बहाने करते रहते कहते रहते कल या आज। क्षणभर में हो सभी पूरते केवल एक आप सब काज ॥६॥ यह स्वभाविक, जो सन्मुख हों वे जग में सुख पाते हैं। तुझसे विमुख रहे जो कोई पूरा दुःख उठाते हैं। विशद स्वच्छ धुति आप जिनेश्वर रागद्वेषमय मल से हीन। निर्मल दर्पण तुल्य आप हो सुख दुःख सन्मुख-विमुखाधीन ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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