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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
मुक्ती गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का। तुम जान लो हे भव्यजन ! इससे अधिक अब कहें क्या ॥२६ ॥ वे धन्य हैं सुकृतार्थ हैं वे शूर नर पण्डित वही । दुःस्वप्न में सम्यक्त्व को जिनने मलीन किया नहीं ॥२७॥ चिदचिदात्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा । तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व है ॥२८ ॥ शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय । भूतार्थ की शरण गह यह आत्मा सम्यक् लहे ॥२९ ॥ अनार्य भाषा के बिना समझा सकें न अनार्य को । बस त्योंहि समझा सकें ना व्यवहार बिन परमार्थ को ॥३०॥ देह - चेतन एक हैं- यह वचन है व्यवहार का । ये एक हो सकते नहीं - यह कथन है परमार्थ का ॥३१ ॥ दृग ज्ञान चारित जीव के हैं- यह कहा व्यवहार से । ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ॥३२॥ जो सो रहा व्यवहार में वह जागता निज कार्य में । जो जागता व्यवहार में वह सो रहा निज कार्य में ॥३३॥ इस ही तरह परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की । निश्चयनयाश्रित श्रमणजन प्राप्ति करें निर्वाण की ॥३४॥ सद्धर्म का है मूल दर्शन जिनवरेन्द्रों ने कहा । हे कानवालों! सुनो दर्शनहीन वंदन योग्य ना ॥ ३५ ॥ जो ज्ञान-दर्शन- भ्रष्ट हैं चारित्र से भी भ्रष्ट हैं। वे भ्रष्ट करते अन्य को वे भ्रष्ट से भी भ्रष्ट हैं ॥ ३६ ॥ दृग - भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं उनको कभी निर्वाण ना। हों सिद्ध चारित्र - भ्रष्ट पर दृग-भ्रष्ट को निर्वाण ना ॥३७॥ जो लाज गारव और भयवश पूजते दृग-भ्रष्ट को । की पाप की अनुमोदना ना बोधि उनको प्राप्त हो ॥ ३८ ॥ -
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