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कुन्दकुन्द शतक ]
[३७९ यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए। अति प्रीति से अनुचरण करिये प्रीति से पहिचानिए ॥१३॥ जो भव्यजन संसार-सागर पार होना चाहते। वे कर्मईंधन-दहन निज शुद्धातमा को ध्यावते ॥१४॥ मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर। निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार कर ॥१५॥ जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है ॥१६॥ तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है तत्ग्रहण सम्यग्ज्ञान है। जिनदेव ने ऐसा कहा परिहार ही चारित्र है ॥१७॥ जानना ही ज्ञान है अरु देखना दर्शन कहा। पुण्य-पाप का परिहार चारित्र यही जिनवर ने कहा ॥१८॥ दर्शन रहित यदि वेश हो चारित्र विरहित ज्ञान हो। संयम रहित तप निरर्थक आकाश-कुसुम समान हो॥१९॥ दर्शन सहित हो वेश चारित्र शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो। संयम सहित तप अल्प भी हो तदपि सुफल महान हो॥२०॥ परमार्थ से हो दूर पर तप करें व्रत धारण करें। सब बालतप हैं बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें।॥२१॥ व्रत नियम सब धारण करें तपशील भी पालन करें। पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें ॥२२॥ जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें। श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें ॥२३॥ जीवादि का श्रद्धान ही व्यवहार से सम्यक्त्व है। पर नियत नय से आत्म का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ॥२४॥ नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं। सम्यक्त्व-परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं ।।२५ ॥
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