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कुन्दकुन्द शतक ]
[३८१ चाहैं नमन दृगवंत से पर स्वयं दर्शनहीन हों।। है बोधिदुर्लभ उन्हें भी वे भी वचन-पग-हीन हों॥३९॥ यद्यपि करें वे उग्र तप शत-सहस-कोटि वर्ष तक। पर रतनत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व-विरहित साधु सब॥४०॥ जिसतरह द्रुम परिवार की वृद्धि न हो जड़ के बिना। बस उसतरह ना मुक्ति हो जिनमार्ग में दर्शन बिना ॥४१॥ असंयमी न वन्द्य है दृगहीन वस्त्रविहीन भी। दोनों ही एक समान हैं दोनों ही संयत हैं नहीं॥४२॥ ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की। कोई करे क्यों वंदना गुणहीन श्रावक-साधु की॥४३॥ मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी। यह मान्यता जब तक रहे अज्ञानी हैं तब तक सभी॥४४॥ करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को। जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हो सद्ज्ञान को॥४५ ।। मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन। यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन!४६ ॥ निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं ?/४७॥ निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ?/४८॥ मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावें अन्यजन। यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन॥४९॥ सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किस तरह जब आयु दे सकते नहीं॥५०॥ सब आयु से जीवित रहें- बात जिनवर ने कही। कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं ॥५१॥
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