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अपूर्व अवसर ]
उदासीन वृत्ती हो सब परभाव से, यह तन केवल संयम हेतु होय जब। किसी हेतु से अन्य वस्तु चाहूँ नहीं, तन में किंचित भी मूर्छा नहिं होय जब ॥२॥ दर्श मोह क्षय से उपजा है बोध जो, तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब। चरित्र-मोह का क्षय जिससे हो जायेगा, वर्ते ऐसा निज स्वरूप का ध्यान जब ॥३॥ आत्म लीनता मन-वचन-काया योग की, मुख्यरूप से रही देह पर्यंत जब। भयकारी उपसर्ग परिषह हो महा, किन्तु न होवेगा स्थिरता का अन्त जब ॥४॥ संयम ही के लिए योग की वृत्ति हो, निज आश्रय से, जिन आज्ञा अनुसार जब। वह प्रवृति भी क्षण-क्षण घटती जाएगी, होऊँ अन्त में निजस्वरूप में लीन जब ॥५॥ पंच विषय में राम-द्वेष कुछ हो नहीं, अरू प्रमाद से होय न मन को क्षोभ जब। द्रव्य-क्षेत्र अरू काल-भाव प्रतिबंध बिन, वीतलोभ हो विचरूँ उदयाधीन जब ॥६॥ क्रोध भाव के प्रति हो क्रोध स्वभावता, मान भाव प्रति दीनभावमय मान जब। माया के प्रति माया साक्षी भाव की, लोभ भाव प्रति हो निर्लोभ समान जब ॥७॥ बहु उपसर्ग कर्ता के प्रति भी क्रोध नहिं, वन्दे चक्री तो भी मान न होय जब।
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