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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह देह जाय पर माया नहिं हो रोम में, लोभ नहिं हो प्रबल सिद्धि निदान जब ॥८ ॥ नग्नभाव मुंडभाव सहित अस्नानता, अदन्तधोवन आदि परम प्रसिद्ध जब । केश- रोम-नख आदि अङ्ग शृङ्गार नहिं, द्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रथ - सिद्ध जब ॥९ ॥ शत्रु-मित्र के प्रति वर्ते समदर्शिता, मान-अमान में वर्ते वही स्वभाव जब । जन्म-मरण में हो नहिं न्यून - अधिकता, भव - मुक्ति में भी वर्ते समभाव जब ॥१०॥ एकाकी विचरूँगा जब शमशान में, गिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जब ।
अडोल आसन और न मन में क्षोभ हो, जानूँ पाया परम मित्र संयोग जब ॥११॥ घोर तपश्चर्या में, तन संताप नहिं, सरस अशन में भी हो नहीं प्रसन्न मन । रजकण या ऋद्धि वैमानिक देव की सबमें भासे पुद्गल एक स्वभाव जब ॥१२॥ ऐसे प्राप्त करूँ जय चारित्र मोह पर, पाऊँगा तब करण अपूरव भाव जब। क्षायिक श्रेणी पर होऊँ- आरूढ़ जब, अनन्यचिंतन अतिशय शुद्धस्वभाव जब ॥१३॥ मोह स्वयंभूरमण उदधि को तैर कर, प्राप्त करूँगा क्षीणमोह गुणस्थान जब। अन्त समय में पूर्णरूप वीतराग हो, प्रगटाऊँ निज केवलज्ञान निधान जब ॥१४ ॥
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