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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
कविवर मंगतराय
(दोहा)
वन्दू श्री अरहन्त पद, वीतराग विज्ञान । वरणों बारह भावना, जग जीवन हित जान ॥ १ ॥ (विष्णुपद छन्द)
कहाँ गये चक्री जिन जीता, भरत खण्ड सारा। कहाँ गये वह रामरू लछमन, जिन रावण मारा ॥ कहाँ कृष्ण रूक्मिणी सतभामा, अरू सम्पति सगरी । कहाँ गये वह रङ्ग महल अरू, सुवरन की नगरी ॥२ ॥ नहीं रहे वह लोभी कौरव, जूझ मरे रन में । गये राज तज पाँडव वन को, अग्नि लगी तन में । मोह नींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को । हो दयाल उपदेश करें, गुरू बारह भावन को ॥३ ॥ अनित्य भावना
सूरज चाँद छिपै निकले, ऋतु फिर फिर कर आवे। प्यारी आयू ऐसी बीते, पता नहीं पावे ॥ पर्वत पतित नदी सरिता जल, बह कर नहिं हटता । स्वाँस चलत यों घटे काठ ज्यों, आरे सों कटता ॥४ ॥ ओस बून्द ज्यों गले धूप में, वा अञ्जुलि पानी । छिनछिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्रजाल आकाश नगर सम, जग सम्पत्ति सारी । अथिर रूप संसार विचारो, सब नर अरू नारी ॥५ ॥
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अशरण भावना
काल सिंह ने मृग चेतन को घेरा भव वन में। नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मन में ॥
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