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बारह भावना
निर्जरा भावना
नव आस्रव पूर्वक कर्म तजे, इससे बन्धन न नष्ट हुआ। अब कर्मोदय को ना देखूँ, ज्ञानी से यही विवेक मिला ॥ इच्छा उत्पन्न नहीं होवें, बस कर्म स्वयं झड़ जावेंगे ॥ जब किञ्चित नहीं विभाव रहें, गुण स्वयं प्रगट हो जावेंगे ॥९ ॥ लोक भावना
परिवर्तन पंच अनेक किये, सम्पूर्ण लोक में भ्रमण किया । ना कोई क्षेत्र रहा ऐसा, जिस पर ना हमने जन्म लिया ॥ नरकों स्वर्गों में घूम चुका, अतएव आश सबकी छोडूं । लोकाग्र शिखर पर थिर होऊँ, बस निज में ही निज को जोडूं ॥ १० ॥ बोधिदुर्लभ भावना
सामग्री सभी सुलभ जग में, बहुबार मिली छूटी मुझसे । कल्याणमूल रत्नत्रय परिणति, अब तक दूर रही मुझसे ॥ इसलिए न सुख का लेश मिला, पर में चिरकाल गँवाया है। सद्बोधि हेतु पुरुषार्थ करूँ, अब उत्तम अवसर पाया है ॥११॥ धर्मभावना शुभ-अशुभ कषायों रहित होय, सम्यकुचारित्र प्रगटाऊँगा । बस निज स्वभाव साधन द्वारा, निर्मल अनर्घ्यपद पाऊँगा ॥ माला तो बहुत जपी अब तक, अब निज में निज का ध्यान धरूँ। कारण परमात्मा अब भी हूँ, पर्यय में प्रभुता प्रकट करूँ ॥१२ ॥ (दोहा)
ध्रुव स्वभाव सुखरूप है, उसको ध्याऊँ आज । दुखमय राग विनष्ट हो, पाऊँ सिद्ध समाज ॥
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