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[वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह
एकत्व भावना मैं एक शुद्ध निर्मल अखण्ड, पर से न हुआ एकत्व कभी। जिनको निज मान लिया मैंने, वे भी तो पर प्रत्यक्ष सभी॥ नहीं स्व-स्वामी सम्बन्ध बने, माना वह भूल रही मेरी। निज में एकत्व मान कर के, अब मेट्रॅगा भव-भव फेरी॥४॥
अन्यत्व भावना जो भिन्न चतुष्टय वाले हैं, अत्यन्ताभाव सदा उनमें। गुण पर्यय में अन्यत्व अरे, प्रदेशभेद नहिं है जिनमें। इस सम्बन्धी विपरीत मान्यता से, संसार बढ़ाया है। निज तत्त्व समझ में आने से, समरस निज में ही पाया है।५ ॥
अशुचि भावना है ज्ञानदेह पावन मेरी, जड़देह राग के योग्य नहीं। यह तो मलमय मल से उपजी, मल तो सुखदायी कभी नहीं। भो आत्मन् श्री गुरु ने, रागादिक को अशुचि अपवित्र कहा। अब इनसे भिन्न परम पावन, निज ज्ञानस्वरूप निहार अहा ॥६॥
आस्त्रवभावना मिथ्यात्व कषाय योग द्वारा, कर्मों को नित्य बुलाया है। शुभ-अशुभ भाव क्रिया द्वारा, नित दुख का जाल बिछाया है। पिछले कर्मोदय में जुड़कर, कर्मों को ही छोड़ा बाँधा। ना ज्ञाता-दृष्टा मात्र रहा, अब तक शिवमार्ग नहीं साधा ॥७॥
संवर भावना मिथ्यात्व अभी सत् श्रद्धा से, व्रत से अविरति का नाश करूँ। मैं सावधान निज में रहकर, निःकषाय भाव उद्योत करूँ॥ शुभ-अशुभ योग से भिन्न, आत्म में निष्कम्पित हो जाऊँगा। संवरमय ज्ञायक आश्रय कर, नव कर्म नहीं अपनाऊँगा ॥८॥
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