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बारह भावना
[३६७ (दोहा) अथिराशरण संसार है, एकत्व अन्यत्वहि जान। अशुचि आस्रव संवरा, निर्जर लोक बखान ॥१३॥ बोधरु दुर्लभ धर्म ये, बारह भावन जान। इनको भावै जो सदा, क्यों न लहै निर्वान ॥१४॥
बारह भावना
(दोहा) निज स्वभाव की दृष्टि धर, बारह भावन भाय। माता है वैराग्य की, चिन्तत सुख प्रकटाय ॥
अनित्य भावना मैं आत्मा नित्य स्वभावी हूँ, ना क्षणिक पदार्थों से नाता। संयोग शरीर कर्म रागादिक, क्षणभंगुर जानो भ्राता ॥ इनका विश्वास नहीं चेतन, अब तो निज की पहिचान करो। निज ध्रुव स्वभाव के आश्रय से ही, जन्मजरामृत रोग हरो॥
अशरण भावना जो पाप बन्ध के हैं निमित्त, वे लौकिक जन तो शरण नहीं। पर सच्चे देव-शास्त्र-गुरु भी, अवलम्बन हैं व्यवहार सही॥ निश्चय से वे भी भिन्न अहो! उन सम निज लक्ष्य करो आत्मन्। निज शाश्वत ज्ञायक ध्रुव स्वभाव ही, एक मात्र है अवलम्बन ॥२॥
संसार भावना ये बाह्य लोक संसार नहीं, ये तो मुझ सम सत् द्रव्य अरे। नहिं किसी ने मुझको दु:ख दिया, नहिं कोई मुझको सुखी करे। निज मोह राग अरु द्वेष भाव से, दुख अनुभूति की अबतक। अतएव भाव संसार तनँ, अरु भोगूं सच्चा सुख अविचल ॥३॥
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