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[ वृहद् आध्यात्मिक पाठ संग्रह कोई खरा कोई बुरा नहिं, वस्तु विविध स्वभाव है। तू वृथा विकलप ठान उर में करत राग उपाव है ॥ यूँ भाव आस्रव बनन तू ही द्रव्य आस्रव सुन कथा । तुझ हेतु से पुद्गल करम बन निमित्त हो देते व्यथा ॥७॥ तन भोग जगत सरूप लख डर भविक गुरु शरणा लिया। सुन धर्म धारा भर्म गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया ॥ इन्द्री अनिन्द्री दाबि लीनी त्रस रुथावर बन्ध तजा । तब कर्म आस्रव द्वार रोकै ध्यान निज में जा सजा ॥८ ॥ तज शल्य तीनों बरत लीनो बाह्यभ्यंतर तप तपा । उपसर्ग सुर-नर- जड़-पशूकृत सहा निज आतम जपा ॥ तब कर्म रस बिन होन लागे द्रव्य भावन निर्जरा । सब कर्म हरकै मोक्ष वरकै रहत चेतन ऊजरा ॥९॥ विच लोकनन्ता लोक माँही लोक में सब द्रव भरा। सब भिन्न भिन्न अनादि रचना निमित्त कारण की धरा ॥ जिनदेव भाषा तिन प्रकाशा भर्म नाशा सुन गिरा । सुर मनुष तिर्यक् नारकी हुई ऊर्ध्व मध्य अधो धरा ॥१० ॥ अनन्तकाल निगोद अटका निकस थावर तन धरा । भू वारि तेज बयार है कै बेइन्द्रिय त्रस अवतरा ॥ फिर हो तिइन्द्री वा चौइन्द्री पंचेन्द्री मन बिन बना । मनयुत मनुष गति हो न दुर्लभ ज्ञान अति दुर्लभ घना ॥११॥ जिय न्हान धोना तीर्थ जाना धर्म नाहीं जप जपा | तन नग्न रहना धर्म नाहीं धर्म नाहीं तप तपा॥ वर धर्म निज आतम स्वभावी ताहि बिन सब निष्फला । 'बुधजन' धरम निजधार लीना तिनहिं कीना सब भला ॥१२॥
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