________________
बारह भावना
1
Jain Education International
कविवर बुधजन (हरिगीतिका)
जेती जगत में वस्तु तेती अथिर परिणमती सदा । परिणमन राखन नाहिं समरथ इन्द्र चक्री मुनि कदा ।। सुत नारि यौवन और तन धन जानि दामिनि दमक सा। ममता न कीजे धारि समता मानि जल में नमक सा ॥१॥ चेतन अचेतन सब परिग्रह हुआ अपनी थिति लहै । सो रहै आप करार माफिक अधिक राखे ना रहै ॥ अब शरण काकी लेयगा जब इन्द्र नाहीं रहत हैं । शरण तो इक धर्म आतम याहि मुनिजन गहत हैं ॥२॥ सुर नर नरक पशु सकल हेरे, कर्म चेरे बन रहे । सुख शासता, नहिं भासता, सब विपति अति में सन रहे ॥ दुःख मानसी तो देवगति में, नारकी दुःख ही भरै । तिर्यंच मनुज वियोग रोगी शोक संकट में जरै ॥३ ॥ क्यों भूलता, शठ फूलता है देख परिकर थोक को लाया कहाँ ले जायगा क्या फौज भूषण रोक को ॥ जनमत मरत तुझ एकले को काल केता हो गया। सङ्ग और नाहीं लगे तेरे सीख मेरी सुन भया ॥४॥ इन्द्रीन तैं जाना न जावै तू चिदानन्द अलक्ष है स्वसंवेदन करत अनुभव होत तब प्रत्यक्ष है ॥ तन अन्य जड़ जानो सरूपी तू अरूपी सत्य है । कर भेदज्ञान सो ध्यान धर निज और बात असत्य है ॥५ ॥ क्या देख राचा फिरै नाचा रूप सुन्दर तन लहा । मल मूत्र भाण्डा भरा गाढ़ा तू न जांनै भ्रम गहा ॥ क्यों सूग नाहीं लेत आतुर क्यों न चातुरता धरै । तुहि काल गटकै नाहिं अटकै छोड़ तुझको गिर परै ॥६॥
1
[ ३६५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org