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बारह भावना
[३७१ मन्त्र यन्त्र सेना धन सम्पत्ति, राज पाट छूटे। वश नहिं चलता काल लुटेरा, काय नगरि लूटे ॥६॥ चक्र रतन हलधर सा भाई, काम नहीं आया। एक तीर के लगत कृष्ण की, विनश गई काया। देव धर्म गुरू शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिरे भटकता चेतन, यूँ ही उमर खोई ॥७॥
संसार भावना जनम-मरण अरू जरा रोग से, सदा दुःखी रहता। द्रव्य क्षेत्र अरू काल भाव भव परिवर्तन सहता ।। छेदन भेदन नरक पशू गति, वध बन्धन सहना। राग उदय से दु:ख सुरगति में, कहाँ सुखी रहना ॥८॥ भोगि पुण्य फल हो इक इन्द्री, क्या इसमें लाली। कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरू जाली। मानुष जन्म अनेक विपतिमय, कहीं न सुख देखा। पञ्चम गति सुख मिले, शुभाशुभ का मेटो लेखो॥९॥
एकत्व भावना जन्मे मरे अकेला चेतन, सुख दुःख का भोगी।
और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदी होगी। कमला चलत न पेंड जाय मरघट तक परिवारा। अपने अपने सुख को रोवे, पिता पुत्र दारा॥१०॥ ज्यों मेले में पन्थी जन मिलि, नेह फिरे धरते। ज्यों तरूवर पै रैन बसेरा, पन्छी आ करते॥ कोस कोई दो कोस कोई उड़, फिर थक थक हारे। जाय अकेला हंस सङ्ग में, कोई न पर मारे ॥११॥
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