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बारह भावना ]
[ ३५९ विभिन्न कवियों द्वारा विरचित बारह भावनाएँ
द्वादशानुप्रेक्षा जग है अनित्य तामैं सरन न वस्तु कोय,
तातें दुःख रासि भववास कौं निहारिए। एक चित सदा भिन्न पर द्रव्यनितें,
___ अशुचि शरीर मैं न आपा बुद्धि धारएि। रागादिक भाव करै कर्म को बढ़ावें तातें,
सवर स्वरूप होय कर्म बन्ध डारिए। तीन लोक माँहि जिन धर्म एक दुर्लभ है,
तातें जिनधर्म कौं न छिनहू विसारिए॥
बारह भावना
कविवर पं. जयचन्द जी द्रव्य रूप करि सर्व थिर, परजय थिर है कौन ? द्रव्यदृष्टि आपा लखो, पर्जय नय करि गौन ॥१॥ शुद्धातम अरू पंच गुरू, जग में सरनौ दोय। मोह उदय जिय के वृथा आन कल्पना होय।।।।। परद्रव्यन” प्रीति जो, है संसार अबोध । ताको फल गति चार मैं, भ्रमण कह्यो श्रुत शोध ॥३॥ परमारथ तें आतमा, एक रूप ही जोय। कर्म निमित्त विकलप घने, तिन नासे शिव होय ॥४॥ अपने अपने सत्व कूँ, सर्व वस्तु विलसाय। ऐसें चितवै जीव तब, पर” ममत न थाय ।।५।। निर्मल अपनी आतमा, देह अपावन गेह। जानि भव्य निज भाव को, यासों तजो सनेह ॥६॥
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